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________________ वर्भस्थल-पशरथ पाँच निद्राएं इस कर्म की नौ उत्तर प्रकृतियाँ हैं । हपु० ३.९५, ५८.. २१५, २२१, २२६-२२९ इसकी उत्कृष्ट स्थिति तीस कोडाकोड़ी सागर तथा जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त होती है। वीवच० १६.१५६ १६० : जैन पुराणकोश इसके शमन के लिए "दर्पमथनाय नमः" इस मंत्र का जप किया जाता है। मपु ४०.६ दर्भस्थल-राजा सुकोशल का नगर । पपु० २२.१७१-१७२ वर्शक-अलका नगरी का विद्याधर राजा और श्रीधरा का पति । मपु० ५९.२२९ दर्शन-(१) पदार्थों का निर्विकल्प ज्ञान । मपु० २४.१०१ (२) सम्यग्दर्शन । सर्वज्ञदेव द्वारा कथित जीव आदि पदार्थों का तीन मूढ़ताओं से रहित एवं अष्ट अंगों सहित निष्ठा से श्रद्धान करना। यह सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र का मूल कारण है। प्रशम, संवेग, आस्तिक्य और अनुकम्पा इसके गुण हैं। निःशंका, निकांक्षा, निवि- चिकित्सा, अमूढ़दृष्टि, उपगृहन, वात्सल्य, स्थितिकरण और प्रभावना ये इसके आठ अंग हैं । मपु० ९.१२१-१२४, १२८ इससे युक्त जीव उत्तम देव और उत्तम पुरुष पर्याय में उत्पन्न होता है, उसे स्त्री पर्याय नहीं मिलती। वह रत्नप्रभा पृथिवी को छोड़ शेष छः पृथिवियों में, भवनबासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवों में तथा अन्य पर्यायों में नहीं जन्मता । मपु० ९.१३६, १४४ वर्शनक्रिया-कर्मबन्ध में करणभूत एक क्रिया। इसमें जीव राग वश सुन्दर रूप देखना चाहता है । हपु० ५८.६९ वर्शन-गुण-प्रशम, संवेग, आस्तिक्य और अनुकम्पा ये चार सम्यक्त्वी के गुण हैं । मपु० ९.१२३ वर्शन प्रतिमा-श्रावक की ग्यारह भूमिकाओं में प्रथम भूमिका । इसमें श्रावक सम्यग्दर्शन में अत्यन्त दृढ़ हो जाता है और वह सात व्यसनों का त्याग कर आठ मूलगुणों को निरतिचार पालता है। वीवच० १८.३६ वर्शनमोह-मोहनीय कर्म का आद्य भेद । केवलो, श्रुत, संघ, धर्म तथा देव का अवर्णवाद करने से इस कर्म का आस्रव होता है। इससे सम्यग्दर्शन का घात होता है । मपु० ९.११७, हपु० ५८.९६ वर्शनविशुद्धि-तीर्थकर प्रकृति की कारणभूत षोडश भावनाओं में प्रथम भावना। इससे जिनेन्द्र द्वारा कथित मोक्ष-मार्ग में समीचीन श्रद्धा होती है । इस श्रद्धा के अभाव में शेष भावनाएँ फलीभूत नहीं होती। मपु० ६३.३१२, हपु० ३४.१३२ वर्शशुद्धि-एक व्रत । इसमें औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक इन त्रिविध सम्यग्दर्शनों के निःशंकित आदि आठ अंगों की अपेक्षा चौबीस उपवास किये जाते हैं। एक उपवास और एक पारणा करने से यह व्रत अड़तालीस दिन में पूर्ण होता है । हपु० ३४.९८ वर्शनाचार-पंचविध चारित्र का एक भेद-अतिचार रहित सम्यग्दर्शन __ का पालन करना । मपु० २०.१७३, पापु० २३.५६ दर्शनाराधना-निश्चय से निर्दोष सम्यग्दर्शन की आराधना । इस आरा धना से जीव आदि तत्त्वों पर और उनके प्रतिपादक जिनेश्वर, निम्रन्थ गुरूं और जिनशास्त्रों पर श्रद्धान होता है । पापु० १९.२६३-२६४ वर्शनावरण-श्रेष्ठ दर्शन का अवरोधक कर्म । चक्षुदर्शनावरण, अचक्षु दर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरण ये चार आवरण तथा निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगुद्धि ये वर्शनोपयोग-उपयोग का एक भेद-अनाकार-अविकल्प उपयोग । यह वस्तु को सामान्य रूप से ग्रहण करता है । इसके चार भेद है-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन । मपु० २४.१००-१०२, पपु० १०५.१४७-१४८ पापु० २२.७१ वव-कृष्ण का पक्षधर एक नुप । मपु०७१.७३-७७ ववीयान-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत बृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१७६ वशग्रोव-रावण । पपु० ७.२४६-२४७ दे० दशानन वशधर्म-मुनिचर्या से सम्बद्ध धर्म । ये दस है-उत्तम, क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य । मपु० ६१.१ बशपविका-दिति और अदिति के द्वारा नमि और विनमि विद्याधरों को दी गयी सोलह निकायों को विद्याओं में से एक विद्या । हपु. २२.६७ वशपूर्वी-दस पूर्वो के ज्ञाता मुनि । महावीर के निर्वाणोपरान्त एक सौ बासठ वर्ष बाद एक सौ तेरासी वर्ष के समय में दस पूर्वो के ज्ञाता ग्यारह आचार्य हुए हैं-विशाखाचार्य, प्रोष्ठिलाचार्य, क्षत्रियाचार्य, जयाचार्य, नागसेनाचार्य, सिद्धार्थाचार्य, धृतिषेणाचार्य, विजयाचार्य, बुद्धिमदाचार्य, गंगदेवाचार्य और, धर्मसेनाचार्य । मपु० २.१४०-१४५ हपु० १.५८, ६०.४७९-४८१ वशम-चार दिन के उपवास के लिए पारिभाषिक शब्द । हपु० ३४.१२५. दशरथ-(१) बलदेव का पुत्र । हपु० ४८.६७ (२) यादवों का पक्षधर एक नृप ।हपु० ५०.१२५ (३) पूर्व घातकीखण्ड के पूर्व विदेह क्षेत्र में स्थित वत्स देश में सुसीमा नगर का राजा । यह धर्मनाथ तीर्थंकर के दूसरे पूर्वभव का जीच था । चन्द्र ग्रहण देखने से उत्पन्न उदासीनता के कारण महारथ नामक पुत्र को राज्य देकर यह संयमी हो गया तथा ग्यारह अंगों का अध्ययन और सोलह कारण भावनाओं का चिन्तन कर इसने तीर्थकर प्रकृति का बन्ध किया। अन्त में यह समाधिमरण पूर्वक सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हुआ । मपु० ६१.२-१२ (४) दशार्ण देश में हेमकच्छ नगर का राजा। यह सूर्यवंशी था और वैशाली के राजा चेटक और उसकी रानी सुभद्रा को तीसरी पुत्री सुप्रभा से विवाहित हुआ था। मपु० ७५ ३-११ (५) विनीता नगरी के राजा अनरण्य और उसकी रानी पृथिवीमती का कनिष्ठ पुत्र, अनन्तरथ का अनुज । पिता और भाई दोनों के अभयसेन निग्रन्थ मुनि के पास दीक्षित हो जाने से इसे एक मास को अवस्था में ही राज्यलक्ष्मी प्राप्त हो गयी थी। दर्भस्थल नगर के राजा सुकोशल और उसकी रानी अमृतप्रभावा की पुत्री अपराजिता, कमलसंकुल नगर के राजा सुबन्धुतिलक और रानी मित्रा की पुत्री कैकया अपरनाम सुमित्रा, कौतुकमंगल नगर के राजा शुभमति और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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