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________________ १४२ जैन पुराणकोश जलधिध्वान - वानरवंशी नरेशों का अनेक प्रासादों से मण्डित तथा रत्नों से परिपूर्ण एक प्रशान्त नगर । पपु० ६.६६ जलधिसुता - राजा दुर्योधन की पुत्री । यह दुर्योधन की रानी जयधि के गर्भ से प्रसूत होने से इस नाम से विश्रुत हुई थी । मपु० ७२.१३४ जलपथ - एक नगर । पाण्डव और कौरवों में राज्य विभाजन होने के बाद नकुल यहाँ रहने लगा था । पापु० १६.७ जलप्रभ - लोकपाल वरुण का विमान । हपु० ५.३३६ जलमन्धन — दुःषमा काल में एक-एक हजार वर्षों के पश्चात् होनेवाले कल्कियों में इक्कीसवाँ कल्कि राजा । मपु० ७६.४३१-४३२ जलयुद्ध - चक्रवर्ती भरत और बाहुबली के बीच हुए तीन युद्धों में दूसरा युद्ध । इस युद्ध में दो योद्धा जलाशय में रहकर परस्पर में जल को नेत्र और मुख पर उछालते हैं और एक-दूसरे को पराजित करने का प्रयत्न करते हैं । इन युद्ध में बाहुबली विजयी हुए थे । मपु० ३६.४५, ५३-५६ जलाभ -- भवनवासी देवों के बीस इन्द्रों में नव इन्द्र । वीवच ० १४.५५ जलावर्त - (१) विजया की दक्षिणश्रेणी का एक नगर । हपु० २२.९५ (२) एक महासरोवर । वसुदेव ने यहाँ जल-पान एवं स्नान किया था । हपु० १९.६१ जल्ल - एक रोगहर ऋद्धि । इसके प्रभाव से जीवों के रोग नष्ट हो जाते हैं। पु० २.७१ जागरूक - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१४६ जातकर्म - जन्म संस्कार । मपु० २६.४ दे० जात संस्कार जातरूप - (१) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. १४६ (२) स्वर्ण । हपु० ६०.२ जातरूपाभ - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. २०० जातसंस्कार -- ( १ ) पुत्र की जन्मकालीन क्रिया । तीर्थंकरों में सभी का यह संस्कार किया गया है। दिक्कुमारियों में प्रमुख रुचका, रुचकीज्ज्वला, रुचकाभा और रुचकप्रभा तथा विद्यत्कुमारियों में प्रमुख विजया, वैजयन्ती, जयन्ती और अपराजिता ये आठ देवियां इस कर्म में निपुण होती हैं तथा जिनेन्द्र का यह संस्कार ये ही किया करती हैं । देव कन्याओं द्वारा यह क्रिया सम्पन्न होने के बाद ही देव जिनेन्द्र भगवान् को ऐरावत हाथी पर बैठाकर बड़े वैभव के साथ सुमेरु पर्वत पर ले जाते हैं । हपु० ८.१०५-११७, १६.१६, ३८.३०-३७ (२) शिशु जन्म महोत्सव इसका अपरनाम त्रियोद्भव किया है। इसमें विभूति के साथ जिनेन्द्र की महापूजा आयोजित की जाती है, दान दिये जाते हैं, नगर भवन सजाये जाते हैं और गीत : नृत्य वादित्र आदि से मनोरंजन किया जाता है मपु० १४.८५.९४, १८८५-८६, वीवच० ९१०५ - १०८ इस संस्कार के समय जन्मकालीन ग्रहों की स्थिति तथा फल ज्ञात किये जाते हैं । मपु० १७.३५९-३६२ जाति -- (१) शारीर स्वर का एक भेद । हपु० १९.१४८ Jain Education International जलविध्वान - जानकी (२) गान्धर्व के तीन भेद है-स्वर ताल और पद ( ढोल ) । इनमें पदगत गान्धर्व को जाति कहते हैं । हपु० १९.१४९ (३) माता के वंश की शुद्धि । मपु० ३९.८५ (४) पारिव्राज्य क्रिया के परमेष्ठियों के गुणरूप सत्ताईस सूत्रपदों में प्रथम सूत्रपद । उत्तम जाति को प्राप्त अहंन्त के चरण सेवक दूसरे जन्म में दिव्या, विजयाश्रिता, परमा और स्वा इन चार जातियों को प्राप्त होता है । इन जातियों में दिव्या इन्द्र के, विजयाश्रिता चक्रवतियों के, परमा अर्हन्तों के और स्वा मोक्ष प्राप्त जीवों के होती है । मपु० ३९.१६२-१६८ (५) जीवों का वर्ग-भेद । जीव अनेक प्रकार के होते हैं । शारीरिक विशेषताओं के कारण जाति भेद होता है । पपु० ११.१९४-१९५ (६) मूलतः मनुष्य जाति एक ही थी। आजीविका के कारण इसके चार भेद किये गये । मपु० ३८.४५-४६ सामान्य रूप से जन्म के कारण व्यक्ति को किसी वर्ण विशेष से सम्बन्धित माना जाता है किन्तु यथार्थ में वर्ण व्यवस्था गुणों के आधीन मानी गयी है, जाति के अधीन नहीं। कोई भी जाति निन्दनीय नहीं है क्योंकि गुणों से ही कल्याण होता है जाति से नहीं व्रतों को पालनेवाले चाण्डाल को भी ब्राह्मण कहा गया है । पपु० ११.१९८ - २०३ जाति ब्राह्मण - तप और श्रुत से रहित ब्राह्मण । मपु० ३८.४३ जाति भट - राजपुर - नगर निवासी धनी मालाकार पुष्पदन्त और कुसुमश्री का पुत्र । यह धनदत्त के पुत्र चन्द्राभ का मित्र था । मद्य मांस की निवृत्ति से मरकर यह विद्याधर हुआ था । इसने जीवन्धर कुमार के साथ अपने पूर्वभव का सम्बन्ध बताया था । मपु० ७५.५२९-५३० जातिमद - उत्तम जाति में उत्पन्न होने का अभिमान । भरतेश के प्रश्न करने पर वृषभदेव ने ब्राह्मण वर्ण के बारे में कहा था कि चतुर्थकाल तक तो ये उचित आचार का पालन करते रहेंगे पर पंचम काल में ये जातिवाद के अभिमान वश सदाचार से भ्रष्ट होकर समीचीन मार्ग के विरोधी हो जायेंगे । मपु० ४१.४५-४८ जातिमन्त्र - जाति संस्कार का कारण होने से इस नाम से सम्बोधित मन्त्र । ये मन्त्र हैं— सत्यजन्मनः शरणं प्रपद्यामि, अर्हज्जन्मनः शरणं प्रपद्यामि अग्मातुः शरणं प्रपद्यामि अर्हत्सुतस्य शरणं प्रपद्यामि अनादिगमनस्य शरणं प्रपद्यामि, अनुपमजन्मनः शरणं प्रपद्यामि, रत्नत्र -- यस्य शरणं प्रपद्यामि सम्यग्दृष्टे मध्यदृष्टे ज्ञानमूनमू ! सर स्वति ! सरस्वति ! स्वाहा, सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु, अपमृत्यु -- विनाशनं भवतु समाधिमरणं भवतु । मपु० ४०.२६-३१ जातिमूढ़ता - मनुष्यों में गाय घोड़ों के समान जातिगत भेद करना, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र में जाति की कल्पना करना । जिनागम के अनुसार मनुष्यों में जातिगत कोई भेद नहीं है। जातकर्म से होनेवालो मनुष्य जाति तो एक ही है । मपु० ३८.४५, ७४.४९०-४९६ जातिसंस्कार- तपश्चरण और शास्त्राभ्यास से सम्पन्न संस्कार । इन संस्कारों से विहीन द्विज केवल जातिमात्र से द्विज हैं । मपु० ३८.४७ जानकी- राजा जनक और उसकी रानी विदेहा की पुत्री । यह भामण्डल For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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