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________________ १३४ : जैन पुराणकोश जटाचार्य-जनक । चिरकाल तक उसी मार्ग का उपदेश दिया और मरकर सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ। दो सागर पर्यन्त यह वहाँ रहा तथा आयु के अन्त में वहाँ से च्युत होकर इसी भरतक्षेत्र के स्थूणागार नामक नगर में भरद्वाज नामक ब्राह्मण और उसकी पुष्पदत्ता स्त्री का पुण्यमित्र नामक पुत्र हुआ। मपु० ७४.६६-७१, ७६.५-३४, वीवच० २.१०५-११३ जटी-परिव्राजक । भगवान् वृषभदेव के साथ दीक्षित हुए वे साधु जो उनके मार्ग से च्युत हो गये थे, जिन्होंने शरीर को भस्मावृत कर अपनी जटाएं बढ़ा ली थीं, प्राणों की रक्षा के लिए शीत से पीड़ित होकर वस्त्ररूप में वृक्षों की छाल पहिनने लगे थे, स्वच्छ जल और कन्दमूल भक्षण करने लगे थे, वनों में रहने के लिए जिन्होंने कुटियों का निर्माण कर लिया था और फूलों के उपहार से ये भगवान् के चरणों को पूजते थे । वृषभदेव इनके आराध्यदेव थे। मपु० १८.४९ ६० कुल ६० २० हपु० ३४.७८ जटाचार्य-आदिपुराण के रचयिता जिनसेन के पूर्ववर्ती आचार्य । इन्होंने वरांगचरित की रचना की थी। इस काव्य में कवि की उक्तियाँ जटिल होने पर भी वे काव्यार्थ को समझने में बाधक नहीं हैं । इनका पूरा नाम जटासिंहनन्दी है । मपु० १.५० जटायु-एक गृद्ध पक्षी । गुप्ति और सुगुप्ति चारण मुनियों को देखकर इसे अपने पूर्वभवों का स्मरण हो आया था। यह सम्यग्दृष्टि और विनीत श्रावक था । राम और सीता ने इसका पालन किया था । इसे एक देश रत्न-त्रय की प्राप्ति हुई थी। मुनि के वचनों के अनुसार इसने अणुव्रत धारण किये थे । इसकी सुशोभित जटाएँ देखकर राम ने इसे यह नाम दिया था। यह विनीत भाव से जिनेन्द्र की त्रिकाल वन्दना करता था। रावण द्वारा सीता-हरण किये जाने पर इसने डटकर विरोध किया था जिसके फलस्वरूप इसे रावण ने ताड़ित कर नीचे गिरा दिया था। मरणोन्मुख देखकर राम ने इसके कान में नमस्कार मंत्र दिया था जिसके प्रभाव से यह मरकर देव हुआ। इसी देव ने लक्ष्मण के मरने पर राम की विह्वल अवस्था में अयोध्या पर आक्रमणकारियों की सेना को माया से भ्रमित कर संकट का निवारण किया था, तथा इसी ने मृतक बैलों के शरीर पर हल रखकर शिला तल पर बीज बोने और और घानी में बालू पेलने का उद्यम दिखाकर राम से लक्ष्मण का दाह-संस्कार कराया था। इसके पूर्व यह दण्डक देश में कर्णकुण्डल नगर का दण्डक नामक राजा था। इसकी प्रिया परिव्राजकों के स्वामी की भक्त थी। राजा ने एक निग्रन्थ मुनि के गले में मरा साँप डाला था तथा मुनि को बहुत समय बाद भी उसी प्रकार ध्यानारून देखकर इसने उनसे क्षमा-याचना की थी और उनके सब कष्ट दूर कर दिये थे। परिव्राजकों के स्वामी को यह रुचिकर न हुआ अतः उसने कृत्रिम निग्रन्थ का रूप धारण कर रानी के साथ सम्पर्क किया। राजा ने कृत्रिम निग्रन्थ मुनि को वास्तविक मुनि जानकर तथा उसकी इस प्रवृत्ति को ज्ञात कर समस्त मुनियों को पानी में पेर डाला था। दैवयोग से बाहर से आ रहे किसी निम्रन्थ मुनि को यह सब विदित होने पर उनकी तत्काल उत्पन्न क्रोधाग्नि के द्वारा समस्त दण्डक देश भस्म हो गया था। यही दण्डक नृप बहुत समय तक संसार भ्रमण करने के पश्चात् गृद्ध-पक्षी की पर्याय को प्राप्त हुआ था। मपु० ४१. १३२-१६६, ४४.८५-१११, ११८.५०-१२३ जटिल-भगवान् महावीर के पूर्वभव का मरीचि का जीव । ब्रह्म स्वर्ग से च्युत होकर यह भरतक्षेत्र स्थित साकेत नगरी के निवासी कपिल नामक ब्राह्मण तथा काली नामा ब्राह्मणी का पुत्र हुआ। पूर्व संस्कार के योग से परिव्राजक के मत में स्थिर होकर इसने पहले की भांति जठरकौशिक-गंगा और गंधावतो नदियों के संगम-स्थलवाले वृक्षों के मध्य में स्थित तापस-वसति । तापस वसिष्ठ यहाँ पंचाग्नि-तप तपा __करते थे। मपु० ७०.३२२-३२३ जठराग्नि–शरीर में विद्यमान त्रिविध अग्नि-ज्ञानाग्नि, दर्शनाग्नि और जठराग्नि में तीसरी अग्नि । पपु० ११.२४८ जनक-हरिवंश में अनेक राजाओं के पश्चात् हुए मिथिला के राजा वासकेतु और उसकी पटरानी विपुला का प्रजा-हितैषी पुत्र । विदेहा इसकी रानी थी। भामन्डल और जानकी युगल रूप में इसी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। इनकी रानी का अपरनाम वसुधा तथा जानकी का अपरनाम सीता था। मपु० ६७.१६६-१६७, पपु० २१.५२-५५, २६. २, १२१, १६४ सागरबुद्धि निमित्तज्ञानी द्वारा यह बताये जाने पर कि "दशरथ का पुत्र तथा जनक की पुत्री रावण-वध के हेतु हैं" विभीषण ने दशरथ और जनक वध का निश्चय किया था । नारद से यह समाचार ज्ञात कर राजा दशरथ ने समुद्र हृदय मंत्री को राज्य सौंप दिया और वह गुप्त वेष में नगर से बाहर निकल गया । दशरथ की कृत्रिम प्रतिमा सिंहासन पर मंत्री ने स्थापित कर रखी थी। ऐसा ही जनक के वचाव के लिए भी किया गया। विभीषण ने अपने बधकों से कृत्रिम पुतलों के शिर कटवाकर निज को धन्य माना था। पपु० २३.२५-२६, ३९-४१, ४५, ५४-५६ विद्याधर चन्द्रगति अपने पालित पुत्र भामण्डल के लिए इसकी पुत्री चाहता था। इसी निमित्त से चपलवेग विद्याधर द्वारा छद्म वेष पूर्वक यह हरा जाकर चन्द्रगति विद्याधर के पास ले जाया गया था। जानकी को विषय बनाकर बहुत वाद-विवाद के बाद विद्याधर चन्द्रगति और इसके बीच यह निश्चय किया गया था कि वचावतं धनुष चढ़ाकर ही राम जानकी प्राप्त कर सकेंगे अन्यथा जानकी चन्द्रगति की होगी। ऐसा निश्चय किये जाने पर ही इसे वहाँ से मुक्त किया जा सका था। इस कार्य की अवधि बीस दिन की थी। अवधि के भीतर ही इसने स्वयंवर आयोजित किया था। सभी आगत विद्याधरों और पृथिवी के शासकों के समक्ष राम ने उक्त धनुष चढ़ाकर इसकी पुत्री जानकी को प्राप्त किया था। पपु० २८.६१-१७४, १९४, २३४-२३६, २४३ जानकी के साथ युगल Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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