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________________ ११८ : जैन पुराणकोश घोषार्या-चक्रव्यूह घोषार्या-तीर्थकर पुष्पदन्त के संध की प्रमुख आर्यिका । मपु० ५५.५६ घोषावती-चार दिव्य वीणाओं में एक वीणा। विष्णुकुमार मुनि द्वारा उपसर्ग हटाये जाने पर देवों ने यह वीणा पृथिवी पर रहनेवालों को दी थी। मपु० ७०.२९६ घ्राण-नासिका । पाँच इन्द्रियों में तीसरी इन्द्रिय । इन्द्रिय जय के प्रसंग में इस इन्द्रिय के विषय गन्ध पर भी विजय प्राप्त की जाती है। पपु० १४.११३ चंचल-(१) सौधर्म और ऐशान स्वर्गों के इकतीस पटलों में ग्यारहवाँ पटल । हपु० ६.४५ दे० सौधर्म (२) रावण का गजरथारोही योद्धा । पपु० ५७.५८ चकार-राजा रवि के पश्चात् हुआ लंका का स्वामी। यह माया, पराक्रम और शौर्य से सम्पन्न राक्षसवंशी विद्याधर था। पपु० ५. ३९५-४०० चक्र—(१) चक्रवर्ती के चौदह रत्नों में एक अजीव रत्न । यह सेना में दण्डरत्न के पीछे चलता है। इसकी एक हजार देव रक्षा करते हैं। इसके स्वामी के कुटुम्बी इससे अप्रभावित रहते हैं । यह नारायण और प्रतिनारायण का आयुध है। इससे नारायण का वध नहीं होता, प्रतिनारायण का होता है । इसमें एक हजार आरे रहते हैं। रामरावण युद्ध में तथा कृष्ण जरासन्ध युद्ध में इसका व्यवहार हुआ था। मपु० ६.१०३, १५.२०८, २८.३, २९.४, ३४.२६, ३६.६६, ३७. ८३-८५, ४४.१८०, पपु० ५८.३४, ७५.४४-६०, हपु० ५२.८३-८४ (२) सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्ग के सात इन्द्रक विमानों में सातवा इन्द्रक विमान । हपु० ६.४८ चक्रक-माहेन्द्र स्वर्ग का एक विमान । मपु० ६२.७८ चक्रधर-(१) विदेह क्षेत्र के पुण्डरीक देश में स्थित एक नगर । यह त्रिभुवनानन्द चक्रवर्ती की निवासभूमि था । पपु० ६४.५० (२) कृष्ण । मपु० ७२.१६८ (३) भविष्यत्कालीन तीसरा बलभद्र । मपु० ७६.४८५ चक्रधर्मा-विद्याघरों के वंश में उत्पन्न एक राजा। यह चन्द्ररथ का पुत्र और चक्रायुध का पिता था। पपु० ५.५० चक्रध्वज-(१) विद्याधरों के वंश में उत्पन्न एक राजा। यह चक्रायुध का पुत्र और मणिग्रीव का पिता था । पपु० ५.५०-५१ (२) चक्रपुर नगर का राजा । इसकी स्त्री का नाम मनस्विनी था। चित्तोसवा इन दोनों की पुत्री थी । पपु० २६ ४-५ __ (३) वीतशोक नगर का राजा। यह नगर पुष्करवर द्वीप के पश्चिम मेरु पर्वत से पश्चिम की ओर स्थित सरित् देश में था। मपु० ६२.३६४-३६८ (४) चक्र-चिह्नांकित समवसरण की ध्वजा । मपु० २२.२३५ चक्रनाथ-कृष्ण । मपु०७१.१४२ चक्रनृत्य-फिरकी लगाकर नृत्य करना। भगवान् के जन्माभिषेक के समय इन्द्र ने देवियों के साथ यह नृत्य किया था। मपु० १४.१३६ चक्रपाणि-कृष्ण । हपु० ३५.३९ चक्रपुर-(१) जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र का एक नगर । यहाँ का राजा अपराजित था। यह तीर्थकर अरनाथ की प्रथम पारणास्थली थी। मपु० ५९.२३९, ६५.३५, हपु० २७.८९, पापु० ७.२८ (२) विद्याधरों की निवासभूमि । पपु० ५५.८६ चक्रपुरी-विदेह क्षेत्र के गन्धा नामक देश की राजधानी। मपु० ६३. २०८-२१७ चक्रपूजा-चक्रवतियों द्वारा दिग्विजय के शुभारम्भ में कृत चक्र की पूजा । मपु० ६.११३ चक्ररथ-सीता का जीव । यह रत्नस्थलपुर का चक्रवर्ती राजा होगा। रावण और लक्ष्मण के जीव इसके पुत्र होंगे । पपु० १२३.११२-१२८ चक्रलाभ-गृहस्थ की त्रेपन क्रियाओं में चवालीसवीं किया। इस क्रिया में निधियों और रत्नों की प्राप्ति के साथ चक्र की प्राप्ति होती है तथा जिसे यह रत्न मिलता है उसे राजाधिराज मानकर प्रजा उसका अभिषेक करती है । मपु० ३८.६१, २३३ चक्रवर्ती-चक्ररत्न का स्वामी । यह षट्खण्डाधिपति, दिग्विजयी, बत्तीस हजार राजाओं का अधिराज, शंख, अंकुश आदि चक्री के लक्षणों से चिह्नित, चौदह महारत्नों का स्वामी, नवनिधिधारी, सुकृती और दस प्रकार के भोगों से सम्पन्न होता है। यह भरत, ऐरावत और विदेह इन तीन क्षेत्रों में होता है । मपु० २.११७, ६.१९४-२०४, २३.६०, हपु० १.१९ वर्तमान काल के बारह चक्रवर्ती ये हैं-भरत, सगर, मघवा, सनत्कुमार, शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ, अरनाथ, सुभूम, महापद्म, हरिषेण, जय और ब्रह्मदत्त । पपु० ५.२२२-२२४, हपु० ६०.२८६२८७, २९८ भविष्य में जो बारह चक्रवर्ती होंगे उनके नाम इस प्रकार है-भरत, दीर्घदन्त, जन्मदन्त (मुक्तदन्त) गूढदत्त, (गूढ़दन्त) श्रोषेण, श्रोभूति, श्रीकान्त, पद्म, महापद्म, चित्रवाहन (विचित्रवाहन) विमलवाहन और अरिष्टसेन । मपु० ७६.४८२-४८४, हपु० ६०.५६३-५६५ एक समय में यह एक ही होता है । एक चक्रवर्ती दूसरे चक्रवर्ती को, एक नारायण दूसरे नारायण को, एक बलभद्र दूसरे बलभद्र को और एक तीर्थकर दूसरे तीर्थकर को देख नहीं पाते । पापु० २२.१०-११ चक्रवाल-विजया की दक्षिणश्रेणी का तीसरा नगर । पपु० ५.७६, हपु० २२.९३ चक्रव्यूह-एक विशिष्ट सैन्य-रचना । इसमें राजा मध्य में रहता है और उसके चारों ओर अंग-रक्षक होते हैं । यह रचना चक्राकार की जाती है। इसमें चक्र के एक हजार आरे होते हैं। प्रत्येक आरे में एक राजा रहता है । प्रत्येक राजा के साथ-साथ सौ हाथी, दो हजार रथ, पांच हजार घोड़े और सोलह हजार पैदल सैनिक रहते हैं। चक्र की नेमि के पास हज़ारों नृप रहते हैं। ऐसे ही एक व्यूह की रचना जरासन्ध ने की थी । गरुडव्यूह की रचना से इस व्यूह को भग्न किया जाता है । मपु० ४४.१११-११३, हपु० ५०.१०२-११२, पापु० १९. १०४ राजा अर्ककीर्ति ने भी चक्रव्यूह की रचना से शत्रु पर विजय पायी थी । पापु० ३.९७ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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