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________________ १०२ जैन पुराणकोश - क्रौंचरवा- - दण्डकारण्य वन की एक नदी । पपु० ४२.६१ क्रौंचवर — इस नाम का सोलहवाँ सागर तथा द्वीप । हपु० ५.६२० Patrata - ( १ ) भरतखण्ड के उत्तर की ओर स्थित एक देश । यहाँ के राजा भरतेश के भाई ने उनकी अधीनता स्वीकार न करके इसे छोड़ दिया था। हपु० ११.६६ (२) भरतखण्ड के मध्यदेशका एक प्रदेश । यहाँ महावीर ने विहार किया था। हपु० ३.६ (१) महावीर के पश्चात् हुए ग्यारह तर मुनियों में तीसरे श्रुतधर मुनि । ये ग्यारह अंग और दस पूर्व के भारी थे । म० २.१४३, ७६.५२१-५२४, हपु० १.६२, वीवच० १.४५-४७ (२) आगामी छठे तोर्थंकर का जीव । मपु० ७६.४७२ (३) वृषभदेव द्वारा सृजित तीन वर्णों में प्रथम वर्ण । भगवान् वृषभदेव ने क्षत्रियों को विद्या सिखायी और निर्बलों की रक्षा के लिए नियुक्त किया। दुष्टों का निग्रह और शिष्टों का परिपालन इनका धर्मं था । सोते हुए, बन्धन में बँधे हुए, नम्रीभूत और भयभीत जीवों का वध करना इनका धर्म नहीं है। राज्य की स्थिति के लिए वृषभदेव ने इस वर्ण के चार वंश स्थापित किये थे - इक्ष्वाकु, कुरु, हरि और नाथ । मपु० १६. १८३-१८४, २४३, ३८.४६, २५९, ४४.३०, पपु० ३.२५६, ११.२०२, ७८.११-१२, हपु० ९.३९, पापु० २.१६१-१६४ क्षत्रिय-न्याय-क्षत्रियों का न्याय यह है कि वे धर्म का उल्लंघन न करें, धन का अर्जन करें, उसकी रक्षा और वृद्धि करें तथा पात्र में उसका विनियोजन करें । मपु० ४२.१३-१४ क्षत्रियान्तकदशपूर्व और ग्यारह अंगधारी एक तबर मुनि मपु० ७६.५२१ क्षपक - चारित्रमोह का क्षय करने में प्रयत्नशील मुनि । ये अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्म सांपराव और क्षीणमोह इन चार गुणस्थानों में रहते हैं । इनकी कषायें क्षीण हो जाती हैं और इन्हें शाश्वत सुख प्राप्त होता है । हपु० ३.८२, ८७ क्षपकश्रेणी-मुक्ति सोपान । इस पर आरूढ़ वे जीव होते हैं जो उत्कृष्ट विशुद्धि को प्राप्त होकर अप्रमत रहते हैं तथा कर्म प्रकृतियों में क्षोभ उत्पन्न करके उन्हें योगवल से कोच्छिन्न कर देते हैं। ऐसा जीव अप्रवृत्तकरण (अधःप्रवृत्तकरण) को करके अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण गुणस्थानों में पहुँचता है। फिर पृथक्त्व वितर्क क्यानाग्नि से अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया और लोभ, इन आठ कषायों, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, छः नौ काय पुरुषवेद, संकलन क्रोध, मान, माया को दग्ध कर और लोभ को सूक्ष्म कर सूक्ष्मसाम्पराय नाम के दसवें गुणस्थान को प्राप्त करता है । इसके पश्चात् सज्वलन लोभ का अन्त करके वह मोहनीय कर्म का सर्वथा अभाव करता है । फिर वह बारहवें क्षीणकषाय नामक गुणस्थान को प्राप्त कर एकत्व वितर्क शुक्लध्यान से ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायकर्मों का भी नाश कर देता है । मपु० २०.२४१-२४२, ४७. २४६, पु० ५६.८८- ९८ Jain Education International चरमा साविचारित्र क्षपण- (१) क्षीणराग तथा क्षमावान् तप से कृश और क्षोणपाप साधु । पपु० १०९.८७ (२) एक मास का उपवास । मपु० ८. २०२ क्षपणक — कर्मक्षय में उद्यत दिगम्बर नग्न साधु । मपु० ६७.३७० क्षपितारि - रावण का सामन्त, संक्रोध नामक योद्धा का हन्ता । पपु० ६०.१३-१४, १८ क्षम - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५.२०१ क्षमा - ( १ ) आहारदाता के सात गुणों में एक गुण । मपु० २०.८२-८४ (२) धर्म ध्यान की दस भावनाओं में प्रथम भावना । मपु० ३६. १५७-१५८ (३) उत्तम क्षमा आदि दस धर्मों में पहला धर्म-उपद्रव करने पर भी दुष्टजनों पर क्रोध नहीं करना । वीवच० ६.५ क्षमाघर - एक मुनि । इन्हें विन्ध्याचल पर्वत पर केवलज्ञान हुआ था । पापु० १५.१३ क्षमी सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१७३ क्षय- (१) कषायों और कर्मों का नाश । हपु० ३.८७, ५८.८३ (२) पुस्तकर्म के तीन भेदों में प्रथम भेद-लकड़ी को छीलकर खिलौने आदि बनाना । पपु० २४.३८ क्षयोपशम-कर्म की चार ( उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम) अव स्थाओं में एक अवस्था । वर्तमान काल में उदय में आनेवाले सर्वघाती स्पर्द्धकों का उदयाभावी क्षय और उन्हीं के आगामी काल में उदय में आनेवाले निषेकों का सदवस्था रूप उपशम तथा देशघाती प्रकृति का उदय रहना । मपु० ३६.१४५, हपु० ३.७९ क्षान्त - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५.१६१ क्षमता - इस नाम की एक आर्यिका । सुबन्धु वैश्य की पुत्री सुकुमारिका ने इन्हीं के पास दीक्षा ली थी । हपु० ४.१२२ पाण्डवपुराण में यह क्षान्तिका तथा महापुराण में क्षान्ति नाम से उल्लिखित है । मपु० ७२.२४९ पापु० १३.६१, शान्ति - ( १ ) इस नाम की एक आर्यिका । मपु० ७२.२४९ दे० क्षान्ता (२) क्षलाभाव क्रोध के कारण उपस्थित होने पर भी क्रोध का न आना । पापु० २३.६४ (३) सातावेदनीय का एक आस्रव । हपु० ५८.९५ शान्तिका – पाण्डव काल की एक आर्यिका । कुन्ती और पाँचों पाण्डवों ने इनसे धर्म लाभ किया था। पापु० १३.६१ दे० क्षान्ता क्षान्ति परायण - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५.१८९ शान्तिमा सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम मपु० २५.१२६ - क्षायिक उपभोग नौ किडियों (सब्बियों) में आठवी क्षायिकशुद्धि (उपभोगान्तरायकर्म के धाय से उत्पन्न अनन्याधिक उपभोग ) मपु० २४.५६ क्षायिक चारित्र – नौ क्षायिक शुद्धियों में चतुर्थ क्षायिक शुद्धि | यह For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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