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________________ कृष्ण-केकया ९६ : जैन पुराणकोश मिटी। कुछ दिनों बाद मथुरा में उत्पात होने लगे। निमित्तज्ञानी वरुण ने कंस को बताया कि उसका महाशत्रु उत्पन्न हो गया है । कंस ने अपने पूर्वभव में सिद्ध की हुई देवियों को इनका पता लगाने और हो सके तो इन्हें मारने के लिए भेजा। देवियों ने पूतना, शकटासुर और अरिष्ट आदि अनेक रूप धारण किये । इन्हें पाकर भी वे इनका कोई बिगाड़ नहीं कर सकी। नन्द और यशोदा ने बड़े लाड़-प्यार से इनका पालन-पोषण किया। इनकी बाल लीलाओं से नन्द ग्राम में आनन्द छा गया । बड़े होने पर ये मथुरा गये । इन्होंने नागशय्या को वश में किया । वहाँ अनेक उत्पात किये। भयंकर हाथियों को मार भगाया । मल्ल युद्ध में चाणूर को मारा और कंस का वध किया । ये अपने माता-पिता देवकी और वसुदेव से मिले और उनके पास रहने लगे । इन्होंने कंस के पिता उग्रसेन को बन्धन मुक्त किया। कंस के वध से जीवद्यशा बहुत दुखी हुई थी। वह अपने पिता जरासन्ध के पास गयी। अपना दुख कहा। जरासन्ध ने कृष्ण का वध करने के लिए अपने पुत्र कालयवन को विशाल सेना के साथ भेजा । कालयवन ने सत्रह बार आक्रमण किये पर वह जीत नहीं सका। अन्त में माला पर्वत पर वह मारा गया। अब की बार जरासन्ध ने अपने भाई अपराजित को बड़ी सेना लेकर भेजा। उसते तीन सौ छियालीस आक्रमण किये । वे सब विफल गये और वह स्वयं युद्ध में मारा गया। बार-बार युद्धों से बचने के लिए कृष्ण के परामर्श से यादवों ने शौर्यपुर, हस्तिनापुर और मथुरा तीनों स्थान छोड़ दिये । वे समुद्र को हटाकर इन्द्र के द्वारा रची गयी द्वारावती नगरी में आकर रहने लगे। इसी समय समुद्रविजय के पुत्र नेमिनाथ का जन्म हुआ। द्वारावती में सर्वत्र आनन्द छा गया। द्वारावती की समृद्धि बढ़ रही थी। जरासन्ध यादवों की समृद्धि को सहन नहीं कर सका। वह यादवों पर आक्रमण करने को तैयार हो गया। उसकी सहायता के लिए दुर्योधन और दुःशासन आदि उसके भाई, कर्ण, भीष्म और द्रोणाचार्य आदि महारथो तथा उनके सहायक अन्य कई राजा अपनी सेनाओं के साथ आ गये। जब कृष्ण ने यह समाचार सुना तो उन्होंने द्वारावती का शासन तो नेमिनाथ को सौंपा तथा वे और बलभद्र जरासन्ध से लड़ने के लिए पाण्डबों तथा द्रुपद आदि अन्य कई राजाओं के साथ युद्धस्थल पर आये । कुरुक्षेत्र में युद्ध हुआ । पाण्डव धृतराष्ट्र के पुत्रों के साथ और श्रीकृष्ण जरासन्ध के साथ लड़े । जरासन्ध किसी भी तरह जब कृष्ण को नहीं जीत सका तो उसने अपने चक्र का प्रहार किया । चक्र कृष्ण के पास आकर रुक गया। उसी चक्र से उन्होंने जरासन्ध का वध किया और कृष्ण चक्रवर्ती हो गये । इस युद्ध में ही धृष्टार्जुन के द्वारा द्रोणाचार्य का, अर्जुन के द्वारा कर्ण का शिखण्डी के द्वारा भीष्म का, अश्वत्थामा के द्वारा द्रुपद का और भीम के द्वारा दुर्योधन तथा उसके भाइयों का वध हुआ । पाण्डवों को अपना सम्पूर्ण राज्य मिला । इसके पश्चात् कृष्ण ने दिग्विजय की और वे तीन खण्ड के स्वामी हुए । उनका राज्याभिषेक हुआ। वे द्वारावती में नेमिनाथ आदि अपने समस्त परिवारवालों के साथ आनन्दपूर्वक रहने लगे। इन्होंने नेमिनाथ को विवाह के योग्य समझकर उनका सम्बन्ध राजा उग्रसेन की पुत्री राजीमती के साथ स्थिर किया। वरात का प्रस्थान हुआ । मार्ग में बिवाह में आये हुए मांसाहारी राजाओं के भोजन के लिए इकट्ठे किये गये पशुओं को नेमिनाथ ने देखा। हिंसा के इस घोर आरम्भ को देखकर करुणार्द्र हो गये और संसार से विरक्त हो गये। उन्होंने राज्य और राजीमती को छोड़ा और दीक्षित हो गये। कुछ ही समय बाद इन्हें केवल ज्ञान हो गया। समवसरण की रचना हुई। उसमें कृष्ण और उनकी रानियाँ भी यथास्थान बेठी। देशना के पश्चात् कृष्ण की आठों पटरानियों ने भगवान् के गणधर से अपने अपने पूर्वभवों की कथाएं सुनीं। कृष्ण की आयु एक हजार वर्ष की थी। इनकी ऊँचाई दस धनुष की थी। नीला वर्ण था और सुन्दर शरीर था। इनके पास सात रत्न थे-चक्र, शक्ति, गदा, शंख, धनुष, दण्ड और नन्दक खड्ग । इनकी आठ पटरानियाँ और सोलह हजार रानियाँ थीं । इन पटरानियों में एक रुक्मिणी का कृष्ण ने हरण किया था । उस समय इनसे लड़ने को आये हुए शिशुपाल का इन्होंने वध किया था । भगवान् नेमिनाथ के केवलज्ञान के बारह वर्ष पश्चात् द्वैपायन के द्वारा द्वारावती नष्ट हुई । अपने भाई वसुदेव के पुत्र जरत्कुमार के मृग के भ्रम से फेंके गये बाण से कौशाम्बी वन में इनकी मृत्यु हुई। मृत्यु से पूर्व इन्होंने सोलह कारण भावनाओं का चिन्तन किया और तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध किया । उत्तरपुराण, हरिवंशपुराण तथा पाण्डवपुराण की कृष्ण-कथाओं में भेद होते हुए भी सामान्यतः एकता है। मपु० ७०.३६९-४९७, ७१.१-४६२, ७२.१-२६८, हपु० ३३.३२-३९, ३५.२-७, १५-८०, ३६.५२-७५, ३८.९-५५, पापु० ११.५७-८४, १७५-२०२, २०.३१६-३५६. २२.८६-९२ कृष्णगिरि-भरत क्षेत्र के आर्य खण्ड का एक पर्वत । भरतेश को सेना ने तुङ्गवरक पर्वत को लांघकर इसे लाँधा था। मपु० ३०.५० कृष्णराज-दक्षिण का एक नृप। इसके पुत्र का नाम श्रीवल्लभ था। हपु० ६६.५२ कृष्णलेश्या-षड् लेश्याओं में प्रथम लेश्या । हपु० ४.३४४-३४५ कृष्णवेणा-आर्यखण्ड की एक नदी । दिग्विजय के समय चक्रवर्ती भरत ने इसे ससैन्य पार किया था । मपु० २९.८६ कृष्णा-द्रौपदी । हपु० ५४.३३ कृष्णाचार्य-बलभद्र सुदर्शन के पूर्वभव का जीव । यह राजगृह नगर के राजा सुमित्र का धर्मोपदेशक एवं दीक्षागुरु था। मपु० ६१.५६-७० केकय-भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड का एक देश (व्यास और सतलज का मध्य भाग) । मपु० १६.१५६ अपरनाम कैकय । हपु० ११.६६ केकया-कौतुकमंगल गगर के राजा शुभमति और उसकी रानी पृथुश्री की पुत्री, द्रोणमेघ को बहिन, राजा दशरथ की रानी और भरत की जननी । इसे अनेक लिपियों और कलाओं का ज्ञान था। स्वयंवर में जैसे ही इसने दशरथ का वरण किया वहाँ आये नृप कुपित होकर दशरथ के विरोथी हो गये। दशरथ ने सभी से युद्ध किया और विजयी हुआ। इस युद्ध में इसने रथ को रास स्वयं सम्हाली थी। इससे दशरथ ने प्रसन्न हो इसे वर मांगने को कहा। इसने कहा था कि वह समय आने पर इच्छित वस्तु मांग लेगो । पपु० २४.१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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