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________________ कोतिकूट-कुण्डलगिरि जैन पुराणकोश : ८७ कुंजर-मदोन्मत्त गज । गज-सेना में इसका अधिक उपयोग होता था । मपु० २९.१३२ कुंजरावर्त-(१) हस्तिनापुर का अपरनाम । यह राजा वसु के पुत्र सुवसु की निवासभूमि था। हपु० १८.१७ (२) विजयाध पर्वत की दक्षिणश्रेणी का एक नगर । हपु० १९. ६८, २२.९६ कुकृत-पाप। अत्यधिक क्रोध करना, पर पीड़ा में प्रीति रखना, रुक्ष वचन बोलना ये कुकृत हैं। पपु० १२३.१७६-१७७ कुटज-जम्बूद्वीप के विध्याचल पर्वत का एक वन । अपरनाम कुटव । यह खदिरसार नामक भील की निवास भूमि था। मपु० ७४.३८९ ३९०, वीवच० १९.९८ कुटिलचेष्टा-मायाचारिता । यह तिथंच आयु के बन्ध का कारण होती है। मपु० ५.१२० कुटिलाकृति–एक महाविद्या । यह दशानन ने प्राप्त की थी। पपु० ७. ३३०, ३३२ कुट्टिम भूतल-जटित प्रांगण । प्रांगण रत्न-जटित भी होते थे। मपु. वंश का शासक हुआ था । सुकीर्ति के बाद भी इसी वंश में कीर्ति नामक एक राजा और हुआ था । हपु० ४५.२४-२५ (५) समवसरण में सभागृहों के आगे के तीसरे कोट के पूर्वी द्वार के आठ नामों में एक नाम । हपु० ५७.५६-५७ कीतिकूट-पूर्व विदेहक्षेत्र के आगे स्थित नीलपर्वत के नौ कूटों में पाँचवाँ कूट । हपु० ५.९९-१०१ कोतिधर-(१) एक महामुनि । ये शिवमन्दिरनगर के राजा कनकपुख और रानी जयदेवी के पुत्र तथा दमितारि के पिता थे। प्रभाकरी नगरी के राजा स्तिमितसागर के पुत्र अपराजित और अनन्तवीर्य जिन्होंने दमितारि को मारा था, इन्हीं से दीक्षित हुए थे । मपु० ६२. ४१२-४१४, ४८३-४८४, ४८७-४८९, पापु० ४.२७७ (२) राजा पुरन्दर और उसकी रानी पृथिवीमति के पुत्र । इनका विवाह कौशल देश के राजा की पुत्री सहदेवी से हुआ था। सूर्यग्रहण को देखकर ये संसार से विरक्त हो गये थे । पुत्र के उत्पन्न होते ही ये दीक्षित हो गये । पपु० २१.१४०-१६५ एक समय गृहपंक्ति के क्रम से प्राप्त अपने पूर्व घर में भिक्षा के लिए प्रवेश करते देख इनकी गृहस्थावस्था की पत्नी सहदेवी ने इन्हें घर से बाहर निकलवा दिया था । पप० २२.१-१३ धाय वसन्तलता से माँ के कृत्य को सुनकर सुकोशल अपनी पत्नी विचित्रमाला के गर्भ में स्थित पुत्र को राज्य देकर (यदि गर्भ में पुत्र है तो) इनसे ही दीक्षित हो गया। सहदेवी आर्तध्यान से मरकर तियंच योनि में उत्पन्न हुई। चातुर्मासोपवास का नियम पूर्ण कर पारणा के निमित्त पिता-पुत्र दोनों नगर जाने के लिए उद्यत हुए ही थे कि सहदेवी के. जीव व्याघ्री ने सुकोशल के शरीर को चीर डाला, पैर की ओर से उन्हें खाती रही और दोनों"यदि इस उपसर्ग से बचे तो आहार-जल ग्रहण करेंगे अन्यथा नहीं" इस प्रतिज्ञा का निर्वाह करते हुए कायोत्सर्ग से खड़े रहे, इन्होंने इस व्याघ्री को सम्बोधा था जिसके फलस्वरूप संन्यास ग्रहण कर व्याघ्री स्वर्ग गयी और इन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ था । पपु० २२.३१-४९, ८४-९८ कोतिषवल-राक्षसवंशी राजा धनप्रभ और उसकी रानी पद्मा का पुत्र और लंका का राजा। इसने विजयाध पर्वत की दक्षिणश्रेणी के मेघपुर नगर के विद्याधरों के राजा अतीन्द्र की पुत्री महामनोहरदेवी से विवाह किया था। श्रीकण्ठ इसका साला था। सुरक्षा की दृष्टि से । इसने श्रीकण्ठ को वानरद्वीप दिया था। पपु० ५.४०३-४०४, ६.२ १०, ७०-७१, ८४ कीतिमती-(१) रुचक पर्वत के दक्षिण दिशावर्ती आठ कूटों में छठे रुचकोत्तर कूट की निवासिनी दिक्कुमारी देवी । हपु० ५.७०९-७१० (२) विजयपुर के राजा वरकीर्ति की रानी । मपु० ४७.१४१ कोतिषण-हरिवंशपुराणकार आचार्य जिनसेन के गुरु । ये आचार्य अमितसेन के शान्त स्वभावी अग्रज थे । हपु० ६६.३१-३३ कीर्तिसमा-विनीता नगरी के राजा सुरेन्द्रमन्यु की रानी । यह बज्रबाहु और पुरन्दर की जननी थी । पपु० २१.७३-७७ कडम्ब-भरत द्वारा जीता गया दक्षिण का एक देश । मप कुण्ड-(१) विद्याधरों का स्वामी, राम का एक महारथी योद्धा। पपु० ५४.३४-३५ (२) रावण का व्याघ्ररथासीन योद्धा । पपु०५७.५१-५२ (३) विदेह देश का एक नगर, वर्द्धमान की जन्मभूमि । मपु० ७५. ७, पापु० १.७२-८६, दे० कुण्डपुर कुण्डधारी-राजा धृतराष्ट्र और उसकी रानी गांधारी का एक पुत्र । पापु० ८.२०२ कुण्डपुर-जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में विदेह देश के अन्तर्गत गोदावरी के निकट विद्यमान एक नगर । राजा सिद्धार्थ के पुत्र वीर-वर्द्धमान की जन्मस्थली । अपरनाम कुण्ड । वसुदेव ने यहाँ के राजा पदमरथ की पुत्री को माला गूंथने का कौशल दिखाकर प्राप्त किया था। मपु० ७४.२५२, ७६.२५१-२७६, पपु० २०.३६, ६०, ३३.२-३, हपु० २.१-४४, ३१.३, ६६.७, पापु० १.७२-८६, वीवच०७.२१३, २२, ८.५९-६० कुण्डभेदो-राजा धृतराष्ट्र और उसकी रानी गान्धारी का पुत्र । पापु० ८.२०३ कुण्डल-कर्णाभूषण । छोटे आकार के कुण्डल को कुण्डली कहते थे । मपु० ३.२७, ७८, ४.१७७, ५.२५७ कुण्डलकूट-रुचकवर पर्वत के उत्तरदिशावर्ती आठ कूटों में छठा कुट । ह्री देवी की निवासभूमि । हपु० ५.७१६ कुण्डलगिरि-कुण्डलवर द्वीप के मध्य में चूड़ी के आकार का यवों की राशि के समान सुशोभित एक पर्वत । इसकी गहराई एक हजार और ऊँचाई बयालीस हजार योजन है। चौड़ाई मूल में दस हजार दो सौ बीस योजन, मध्य में सात हजार एक सौ इकसठ योजन और अन्त में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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