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________________ ८४ : जैन पुराणकोश काललब्धि-काली काललब्धि-काल आदि पाँच लब्धियों में एक लब्धि-कार्य सम्पन्न होने कालाजला-जम्बुद्वीप के भरतक्षेत्र में स्थित एक अटवी । पाण्डव वन का समय । विशुद्ध सम्यग्दर्शन की उपलब्धि का बहिरंग कारण। वास के समय यहाँ आये थे । हपु० ४६.७ इसके बिना जीवों को सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नहीं होती। भव्य कालाग्नि-व्योम-विहारी विद्याधर, श्रीप्रभा का पति और दक्षिणसागरजीव को भी इसके बिना संसार में भ्रमण करना पड़ता है। इसका वर्ती द्वीप में विद्यमान किष्कुनगर को दक्षिण दिशा में इन्द्र द्वारा निमित्त पाकर जीव अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण रूप _ नियुक्त लोकपाल यम का पिता । पपु० ७.११४-११५ तीन परिणामों से मिथ्यात्व आदि सात प्रकृतियों का उपशम करता कालातिक्रम-अतिथिसंविभाग व्रत के पाँच अतिचारों में पाँचवाँ अतिहै तथा संसार की परिपाटी का विच्छेद कर उपशम सम्यग्दर्शन प्राप्त चार (समय का उल्लंघन कर दान देना)। हपु० ५८.१८३ करता है। मपु० ९.११५-११६, १५.५३, १७.४३, ४७.३८६, कालाम्बु-(१) एक देश। लवणांकुश ने यहाँ के राजा को पराजित ४८.८४, ६३.३१४-३१५ किया था। पपु० १०१.७७-७८ कालली-संगीत की चौदह मूच्र्छनाओं के चार भेदों में चौथा भेद । (२) एक वापी । प्रद्युम्न ने कालसंवर के ४४९ पुत्रों को इसी इसमें चार स्वर होते हैं । हपु० १९.१६९ वापी में औंधे मुंह बन्द किया था। हपु० ४७.७०-७४ कालश्वपाकी-मातंग विद्याधरों का एक निकाय । ये काले मृगचर्म कालाष्टमी-आषाढ़ कृष्ण अष्टमी । यह तीर्थकर विमलनाथ को निर्वाण को और काले चर्म के वस्त्रों को धारण करते हैं । हपु० २६.१८ तिथि है । मपु० ५९.५५-५७ कालसंवर-विजयार्ध पर्वत की दक्षिणश्रेणी के मेघकूट नगर का एक ___कालिंगक--(१) कलिंग देश के राजा। राम और लक्ष्मण के साथ विद्याधर राजा । अपनी रानी कांचनमाला के साथ जिनेन्द्र की पूजा वज्रजंघ के हुए युद्ध में इन्होंने वनजंघ का साथ दिया था। पपु० के लिए आकाश मार्ग से विमान में जाते हुए इसने एक शिला को १०२.१५४, १५७ हिलती हुई देखा । इसका कारण खोजते हुए नीचे उतरने पर इसे शिला (२) भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड का एक वन । मपु० २९.८२ के नीचे एक शिशु प्राप्त हुआ था। प्रिया के अनुरोध पर इस शिशु कालिंगी-अन्धकवृष्टि और सुभद्रा के आठवें पुत्र पूरितार्थोच्छ की को इसने युवराज पद दिया तथा कांचनमाला ने शिशु का “देवदत्त" भार्या । मपु० ७०.९५-९९, हपु० १९.५ नाम रखा था। शिशु के युवा होने पर कांचनमाला उसे देखकर कालिंजर-एक वन । वनवास के समय पाण्डव यहाँ आये थे। पापु० कामासक्त हुई किन्तु जब देवदत्त को सहवास के योग्य नहीं पाया १६.१४५ तब उसने छल से कुचेष्टा की । यह भी उसके विश्वास में आ गया। कालि-राम का एक योद्धा । पपु० ५८.१३-५७ फलस्वरूप इसने अपने पांच सौ पुत्रों को देवदत्त को मारने के लिए कालिका-पुरूरवा भील की स्त्री । मुनिराज सागरसेन को मृग समझ आज्ञा दी थी। युद्ध में इन्हें देवदत्त से पराजित होना पड़ा था। मपु० कर मारने में उद्यत अपने पति को रोकते हुए इसने कहा था कि ये ७२.५४-६०, ७६-८७, १३०, हपु० ४३.४९-६१ इस शिशु का मृग नहीं वन-देवता घूम रहे हैं। इन्हें मत मारो। यह सुनकर मूलनाम प्रद्युम्न था । मपु० ७२.४८ पुरूरवा ने मुनि को नमन किया था और मधु, मांस तथा मद्य के त्याग कालसन्धि-भोगभूमि का अन्तिम और कर्मभूमि का आरम्भिक समय । का व्रत ग्रहण किया था। मपु० ७४.१४-२२, वोवच० २.१८-२५ मपु० १२.८ कालिन्द-एक देश । भरतेश के सेनापति ने इसे जीता था। मपु० काससौकरिक-यह पूर्वभव में मनुष्य आयु को बाँधकर नीच गोत्र के २९.४८ उदय से राजगृह नगर में नीचकुल में उत्पन्न हुआ था । इसके सम्बन्ध कालिन्दसेना-राजा जरासन्ध की पटरानी। हपु० १८.२४ दे० में गौतम गणधर ने श्रेणिक से कहा था कि इसे जातिस्मरण हुआ है, कलिन्दसेना अतः यह विचारने लगा है कि यदि पुण्य-पाप के फल से जीवों का कालिन्दी-(१) स्निग्ध एवं नीले जल से युक्त यमुना नदी। वत्स देश सम्बन्ध होता है तो पुण्य के बिना इसने मनुष्य-जन्म कैसे प्राप्त कर की कौशाम्बी नगरी इसी नदी के तट पर स्थित थी। कर्ण को इसी लिया ! इसलिए न पुण्य है, न पाप । इन्द्रियों के विषय से उत्पन्न नदी में बहाया गया था। मपु० ७०.११०-१११, हपु० १४.२ हुआ वैषयिक सुख ही कल्याण कारक है ऐसा मानकर यह पापात्मा (२) मथुरा के सेठ भानु के पुत्र सुभानु की स्त्री। हपु० निःशंक होकर हिंसा आदि पांचों पापों को करने से नरकायु का बन्ध ३३.९६-९९ हो जाने के कारण जीवन के अन्त में सातवें नरक में जायगा। कालियाहि-यमुना का एक सर्प । कृष्ण ने इसको मारा था। हपु० मपु० ७४.४५४-४६०, वीवच० १९.१५९-१६६ ३६.७-८ कालस्तम्भ-विद्याधरों का एक स्तम्भ । कालाश्वपाकी विद्याधर इसो काली-(१) साकेत नगर के निवासी ब्राह्मण कपिल को पत्नी और के पास बैठते हैं । हपु० २६.१८ जटिल की जननी । मपु० ७४.६८, वीवच० २.१०५-१०८ कालांगारिक-राजपुर नगर के राजा सत्यंधर के मंत्री काष्ठांगारिक (२) एक देवी । पूर्वजन्म में यह सर्पिणी थी। किसी विजातीय का पुत्र । राजा को मारने में इसने अपने पिता का सहयोग किया सर्प के साथ रमण करते हुए देखकर जयकुमार के सेवकों ने सर्प और था । मपु० ७५.२२१-२२२ दे० काष्ठांगारिक सर्पिणी दोनों को बहुत दण्ड दिया था जिससे मरकर नाग तो गंगा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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