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________________ ७० पुण्यात्रवकथाकोशम् [२-५ १३: सोऽवदत्-शूलव्यथा महती वर्तते । मनुष्याणां पार्श्वखण्डेन सेकः कर्तव्यः । तच्च दुष्प्रापम् । त्वं महात्यागी प्रयच्छेत्युक्ते छुरिकया प्रलूय दत्ते साश्चर्य यक्षेण पूजितः निव्रणश्च कृतः। ततः स परिभ्रमन् राजगृहं गतः। तत्र विष्णुदत्तएकदण्डिना भणितम्- अत्र कियदन्तरे रसकूपस्तिष्ठति, तस्माद्रस आकृष्टश्चेद् बहुद्रव्यं भवति। तेनाभाणि 'आकृप्यत एव प्रदर्शय'। ततस्तपस्विना तत्तटे काष्टशूल प्राताडितः। तत्र वरत्रां बद्ध्वा चारुदत्तो वन्धयित्वा हस्ते तुम्बकं दत्त्वा उत्तारितश्चारुदत्तो रसतुम्बकं वरत्रायां बन्धयन् केनचिदुक्तः-निकृष्टस्तपस्वी, अहमनेन निक्षिप्तः त्वमपीति । चारुदत्तेनोक्तम् 'कस्त्वम्' । उज्जयिन्या वणिक्पुत्रोऽहं गतद्रव्यः अनेन रसं गृहीत्वा निक्षिप्तः रसेनार्धदग्धदेहः कण्ठगतप्राणस्तिष्ठामि । चारुदत्तेन रसतुम्बकं बन्धयित्वा द्वितीयवारे दृषद् बद्धः । तेन कियदन्तरे वरत्राकृष्य छेदिता । चारुदत्तेन स वणिक् पृष्टः 'अस्ति मम कोऽपि निःसरणोपायः' । स कथितवान्- अत्रैका गोधा रस पातुमागच्छति, तत्पुच्छं धृत्वा निर्गच्छेति । श्रुत्वा चारुदत्तो हृष्टः तस्मै पञ्चनमस्कारान् दत्त्वा तथैव तत्पुच्छं धृत्वा यावद् गच्छति तावदने मार्गः संकीर्णोऽभूत् । तदनु गोधां मुक्त्वान्तराले आया था । उसने उससे पूछा कि तुम क्यों रो रहे हो ? उसने उत्तर दिया कि मुझे शूलकी पीड़ा बहुत हो रही है। उसे दूर करनेके लिये मनुष्यके पार्श्वभागसे सेक करना पड़ता है। परन्तु वह दुर्लभ है । तुम महादानी हो, मेरे लिये उसका दान करो । यह कहनेपर चारुदत्तने छुरीसे काटकर अपना पार्श्वभाग उसे दे दिया । यह देखकर यक्षको बहुत आश्चर्य हुआ। उसने चारुदत्तकी पूजा करके उसके घावको भी ठीक कर दिया। तत्पश्चात् चारुदत्त घूमता हुआ राजगृह नगरमें पहुँचा । वहाँ विष्णुदत्त नामके किसी एकदण्डी तपस्वीने उससे कहा कि यहाँसे कुछ दूर एक रसका कुआँ है । उसमेंसे यदि रसको निकाला जाय तो बहुत-सा द्रव्य प्राप्त हो सकता है। तब चारुदत्तने उससे कहा कि रसको खींचकर दिखलाओ। इसपर तपस्वीने उसके किनारेपर काष्ठशूल ( मचान ) को आहत किया । फिर उसको रस्सीसे बाँधकर और उसपर चारुदत्तको बैठाकर उसके हाथमें खूबड़ीको देते हुए उसे रसकूपके भीतर नीचे उतारा । चारुदत्त जब उस रसलॅबड़ीको रस्सीमें बाँध रहा था तब किसी अज्ञात मनुप्यने उससे कहा कि वह तपस्वी निकृष्ट है, इसने मुझे यहाँ फेक दिया और तुम्हें भी फेंक दिया। चारुदत्तने उससे पूछा कि तुम कौन हो ? उत्तरमें उसने कहा कि मैं उज्जयिनीका एक निर्धन वैश्यपुत्र हूँ। इस तपस्वीने रसको लेकर मुझे यहाँ पटक दिया । रससे मेरा शरीर अधजला हो गया है। अब मैं मरना ही चाहता हूँ। यह सुनकर चारुदत्तने पहिले रसतूंचीको रस्सीमें बाँधा और तत्पश्चात् दूसरी बार उसमें पत्थरको बाँधा । तब तपस्वीने कुछ दूर उस रस्सीको खींचकर बीच में ही काट डाला। फिर चारुदत्तने उस वैश्यसे पूछा कि इसमेंसे मेरे बाहिर निकलनेका कोई उपाय है क्या ? तब वैश्यने बतलाया कि यहाँ एक गोह रस पीने के लिये आती है, तुम उसकी पूँछको पकड़कर निकल जाना। यह सुनकर चारुदत्तको बहुत हर्ष हुआ। उसने उस मरणोन्मुख वैश्यको पंचनमस्कारमंत्र दिया । तत्पश्चात् वह उस गोहकी पूँछको पकड़कर बाहिर आ रहा था, परन्तु आगे चलकर मार्ग संकुचित हो गया था। तब वह गोहकी पूँछको १. फ ब विष्णुमित्र । २. फ केधिन आह धूर्तदुष्टस्तपस्वी, ब केनचिदुक्तं निकृष्टस्तपस्वी । ३. तेनोक्तं ४.फ गोधरसं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org -
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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