SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 81
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुण्यास्रवकथाकोशम् [१-८: नेमतुर्गङ्गोदकेन दम्पती सुप्लवतुर्दिविजलोकवस्त्राभरणैः पूजयामासतुः स्वर्ग जग्मतुश्च । एवं सुरपूजितः श्रेणिकः कुणिकाय राज्यं दत्त्वा सुखेन तिष्ठामीति मत्वा तं राजानं चकार । स च महताग्रहेण मातरं निवार्य तमेवासिपञ्जरे निक्षिप्तवान् । अलवणकञ्जिककोद्रवान्नं च भोक्तुं दापयति दुर्वचनानि च भणति । एवं दुःखानि सहमानोऽस्थानः। अन्यदा भोक्तुमुपविष्टस्य कुणिकस्य भाजने तत्पुत्रो मूत्रितवान् । स मूत्रोदनमपसार्य हे मातः पृष्टवान् मत्तोऽन्यः किमीदग्विधोऽपत्यमोहवान् विद्यते। सा बभाण ---त्वं किं मोहवान् । शृणु तव पितुर्मोहं वाल्ये तवाङ्गुलो दुर्गन्धरसादियुक्तो व्रण आसोत् । केनाप्युपायेन सुखं नास्ति यदा तदा त्वत्पिताङ्गुलिं स्वमुखे निक्षिप्य आस्ते । इति श्रुत्वोक्तवान् हे मात, उत्पन्नदिने मां त्यक्तवानिति किमीग्विधोऽ. पत्यमोह इति। तयाभाणि मया त्यक्तोऽसि, तेनानीतोऽसि राजापि कृतोऽसि । तस्येत्थं कर्तुं तवोचितमिति श्रुत्वा स आत्मानं निन्दित्वा मोचयितुं यावदागच्छति' तावत्तं विरूपकाननं विलोक्यान्यदपि किंचिदयं करिष्यतीति मत्वा श्रेणिकोऽसिधारासु पपात ममार, प्रथमनरके जज्ञे। कुणिकोऽतिदुःखं चकार तत्संस्कारं च । तन्मुक्तिनिमित्तं ब्राह्मणादिभ्योऽग्रहारादिकं प्रकट कर दिया। फिर उन दोनोंने उसे नमस्कार करके चेलिनीके साथ उन दोनोंका गंगाजलसे अभिषेक किया। तत्पश्चात् स्वर्गलोकके वस्त्राभरणोंसे उनकी पूजा करके वे स्वर्गको वापिस चले गये । इस प्रकार देवोंसे पूजित होकर श्रेणिकने, कुणिकके लिए राज्य देकर मैं सुखपूर्वक रहूँगा, इस विचारसे उसे राजा बना दिया। तब कुणिकने माताके बाधक होनेपर उसे अतिशय आग्रहसे रोककर पिताको ही असिपंजर (कटघरा) में रख दिया । वह उसके लिए नमकके बिना कांजिक और कोदोंका भोजन खानेके लिए दिलाता तथा दुर्वचन बोलता था । इस प्रकारसे दुखको सहता हुआ श्रेणिक उस कटघरेमें स्थित रहा । किसी समय जब कुणिक भोजनके लिए बठा था तब उसके पुत्रने भोजनके पात्रमें मूत दिया। उस समय कुणिकने मूत्रयुक्त भोजनको अलग करके शेषको खाते हुए मातासे पूछा कि मुझको छोड़कर दूसरा कोई ऐसा पुत्र प्रेमी है क्या ? उत्तरमै चेलनाने कहा कि तू कितना मोहवाला है, अपने पिताके पुत्रमोहको सुन-बाल्यावस्थामें तेरी अंगुलिमें दुर्गन्धित पीव आदिसे संयुक्त एक घाव हो गया था। वह किसी भी उपायसे ठीक नहीं हुआ। इससे तू बहुत दुखी था। तब तेरे पिताने उस अंगुलिको अपने मुंहमें रखकर तुझे सुखी किया था। यह सुनकर कुणिकने मातासे कहा कि हे माता ! क्या यही पुत्रमोह है जो कि मुझे उत्पन्न होनेके दिन ही छोड़ दिया गया था ? चेलनाने कहा कि तेरा परित्याग मैंने किया था, राजा तो तुझे वहाँसे उठाकर वापिस लाये थे। इतना ही नहीं, उन्होंने तुझे राजा भी बनाया । ऐसे पुत्रस्नेही पिताके विषयमें तुझे ऐसा अयोग्य व्यवहार करना उचित है क्या ? यह सुनकर कुणिकने अपनी आत्मनिन्दा की । फिर वह पिताको बन्धनमुक्त करनेके लिए उनके पास पहुँचा । किन्तु जब श्रेणिकने उसे मलिन मुखके साथ अपनी ओर आते हुए देखा तो यह सोचकर कि अब और भी यह कुछ करेगा, वह तलवारकी धारपर गिर पड़ा और मर करके प्रथम नरकमें उत्पन्न हुआ। इस दुर्घटनासे कुणिकको बहुत दुख हुआ। उसने श्रेणिकके अग्निसंस्कारको करके उसकी मुक्तिके निमित्त ब्राह्मणादिके लिए अग्रहारादि दिया । माता चेलिनीके समझानेपर भी जब उसने जैन मतको १. प शमरसार्य भुक्तं मातरं, फमपसार्य तु भुक्त्वा मातरं । २. फ राजापि वृद्धि कृतोऽसि । ३. फ भवानुचितमिति । ४. फ आत्मनो। ५. फ यदा गच्छति । ६. फ सिधारामुपयात:। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary:org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy