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________________ पुण्यात्रकथाकोश [ १-८ : ययाचे । तेन च रात्रौ नोचितमिति धर्म [श्रा]वणं कृतम् । स जैनो भूत्वा संन्यासेन सौधर्म गतः । तस्मादागत्याभयकुमारो जातः । इदानीं गजकुमारस्य भवानाह - तथाहो कस्मिन्नरण्ये ' सुधर्मनामा मुनिर्ध्यानेनास्थात् । तत्र च भिल्लपल्ल्यामतिदारुणभिल्लस्तदरण्येऽग्निमदाद्भट्टारकः समाधिनाच्युतमगात् । भिल्लस्तत्कलेवरं दृष्ट्वा कृतपश्चात्ताप श्रायुरन्ते तत्रारण्ये महान् हस्ती जातः, नन्दीश्वरद्वीपात्स्वर्ग गच्छताच्युतनिवासिनादर्शि । तदनु स सुरो दिगम्बरवेषेण तदागमनमार्गे ध्यानेन स्थितः । तं विलोक्य हस्ती जातिस्मर श्रासीत् प्रणतवांश्च । धर्मश्रवणानन्तरं गृहीतसकलश्रावकत्रतः समाधिना सहस्रारं गत्वागत्य गजकुमारोऽभूदिति निशम्याभयकुमारादयो दीक्षां दधुर्नन्द श्रीश्च । राजा यदभीष्टं तत्सर्वमाकर्ण्य चेलिन्या स्वपुरं विवेश । महामण्डलेश्वरविभूत्या तस्थौ । ५८ एकदा सौधर्मेन्द्रो निजसभायां सम्यक्त्वस्वरूपं निरूपयन् देवैः पृष्टः किमोहग्विधः सम्यक्त्वाधारो नरो भरतेऽस्ति नो वा । स कथयति श्रेणिकस्तथाविधो विद्यते, इर्ति निशम्य द्वौ देवौ तत्परीक्षणार्थं त्रोत्तीर्णौ । तत्पापर्द्धिगमनपथि नद्यामेको दिगम्बरवेषेण जालं निक्षि 3 करना योग्य नहीं है । इस प्रकार वह धर्मको सुनकर जैन हो गया । तत्पश्चात् संन्यासपूर्वक मरणको प्राप्त होकर वह सौधर्म स्वर्गको प्राप्त हुआ और फिर वहाँ से च्युत होकर अभयकुमार हुआ है । अब गजकुमारके भवको कहते हैं जो इस प्रकार हैं- एक वनमें सुधर्म नामके मुनि ध्यान से स्थित थे । इस वनके भीतर भीलोंकी वस्ती में एक अत्यन्त भयानक भील था । उसने उक्त वनमें आग लगा दी । तब वहाँ स्थित सुधर्म मुनि समाधिपूर्वक प्राणोंको छोड़कर अच्युत कल्पमें देव हुए । भीलने जब मुनिके मृत शरीरको देखा तब उसे पश्चात्ताप हुआ । वह आयुके अन्त में मरणको प्राप्त होकर उसी बनके भीतर विशाल हाथी हुआ । पूर्वोक्त सुधर्म मुनिका जीव वह अच्युतकल्पवासी देव नन्दीश्वर द्वीपसे स्वर्गको वापिस जा रहा था । तब उसने जाते हुए उस हाथी को देखा । तत्पश्चात् वह दिगम्बर वेषको धारण करके उक्त हाथीके आनेके मार्गमें ध्यानसे स्थित हो गया। उसे उस अवस्था में स्थित देखकर हाथी को जातिस्मरण हो गया । तब उसने उसे प्रणाम किया । फिर उसने धर्मको सुनकर श्रावकके समस्त व्रतोंको धारण कर लिया । अन्त में वह समाधिपूर्वक मरकर सहस्रार स्वर्ग में गया और फिर वहाँ से आकर गजकुमार हुआ है। इस प्रकार अपने पूर्वभवोंके वृत्तान्तको सुनकर अभयकुमार आदि के साथ नन्दश्री ( अभयकुमारकी माता ) ने भी दीक्षा धारण कर ली । राजा श्रेणिकको जो भी अभीष्ट था वह सबको सुनकर वह चेलिनी के साथ अपने नगर में वापिस आया और महामण्डलेश्वरकी विभूतिके साथ स्थित हुआ । किसी समय सौधर्म इन्द्र अपनी सभा में सम्यक्त्वके स्वरूपका निरूपण कर रहा था । तब देवोंने उससे पूछा कि क्या इस प्रकारके सम्यक्त्वका धारक कोई मनुष्य भरत क्षेत्र में है या नहीं । इसके उत्तर में सौधर्म इन्द्रने कहा कि हाँ, उस प्रकारके सम्यक्त्वका धारक वहाँ राजा श्रेणिक विद्यमान है । यह सुनकर दो देव उसकी परीक्षा करनेके लिए यहाँ आये। उनमें से एक देव तो राजा श्रेणिक के शिकार के लिए जानेके मार्ग में स्थित एक नदीपर दिगम्बर के वेषमें जालको फैलाकर १. प ( अस्पष्टमस्ति ), फ श्रवणकृतं ब श्रवणं कृतं । २. फ तथा हि कस्मिन्नरण्ये । ३. पश आयुरन्तेन । ४. श कुमारादयो यो दीक्षां । ५. फ बभु० । ६. श किमीदृग्वेधः । ७. फ ब सम्यक्त्वाधारो भरते विद्यते नो । ब प्रतिपाठोऽयम् । श विद्यतेति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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