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पुण्यास्रवकथाकोशम्
[१-८ कर्ममठसमीपे उपावीविशत् । तं मणि मयूरो जगार। तमपश्यन् सुवर्णकारो मुनि मणि ययाचे । स ध्यानेनास्थात् । स दूरस्थो मुनये काष्ठं मुमोच । तच्च तमस्पृशन् मयूरगले लग्नम् । तदा मुखान्मणिरुच्चचाल । तं विलोक्य राज्ञः समर्प्य दिदीक्षे इति । किं तस्येत्थं कर्तुमुचितम् । श्रेष्टिनोक्तं 'न'।१०। श्रेष्ठी कथयति-कश्चित्पुरुषोऽटव्यामटन् गजमालुलोके, भयात्तरुमारुरोह। गजस्तमलभमानो जगाम । स तस्मादुत्तीर्य गच्छन् भेय काष्ठमवलोकयतां तक्ष्णामदोदर्शत् इति । तस्येदं किमुचितम् । यतिरवोचत् ११। यतिः कथयति-दारावत्यां नारायणोनृपस्तमेकदा ऋषिनिवेदको विज्ञापयामास' 'मेदर्जमुनिरागत्योद्याने स्थितः' इति श्रुत्वा विष्णुजगाम क्वन्दे । तं व्याधितं विलोक्य राजा स्ववैद्यं पप्रच्छ । स च रालकपिष्टपृक्तप्रयोगमचीकथन् । अन्यस्थापकानिवार्य राजा रुक्मिणीगृहे रालकपिष्टपिण्डकान् ददौ । स नीरोगोऽ. जनि। राशा पृष्टेन कर्मणामुपशमे नीरोगोऽभवमिति भणिते वैद्यः कोपमुपजगाम, कालान्तरे लिए उसके घरपर आये । उसने पड़िगाहन करके उन्हें कर्ममठ (प्रयोगशाला) के समीपमें बैठाया। इतनेमें उस मणिको मयूर निगल गया । तब मणिको न देखकर सुनारने मुनिके ऊपर सन्देह करते हुए उनसे उस मणिको दे देनेके लिए कहा। इस उपसर्गको देखकर मुनि ध्यानस्थ हो गये । तब क्रुद्ध होकर सुनारने दूरसे मुनिको एक लकड़ी मारी। वह लकड़ी मुनिको न छूकर उस मयूरके गलेमें जा लगी। उसके आघातसे मयूरके गलेसे वह मणि निकल पड़ा। उसको देखकर सुनारने उसे उठा लिया और जाकर राजाको दे दिया। इस घटनासे विरक्त होकर सुनारने दीक्षा ग्रहण कर ली । बताओ कि उस सुनारको ऐसा करना योग्य था क्या ? सेठ बोला कि नहीं, उसका वैसा करना अनुचित था ॥१०॥
सेठ कहता है- किसी पुरुषने वनमें घूमते हुए एक हाथीको देखा । उसे देखकर वह भयसे वृक्षके ऊपर चढ़ गया। इससे वह हाथी उसे न पाकर वापिस चला गया। फिर वह उस वृक्षके ऊपरसे उतरकर जा रहा था कि इसी समय उसने भेरीके लिए लकड़ीको खोजते हुए किसी बढ़ईको देखा । तब उसने उक्त लकड़ीके योग्य उसी वृक्षको दिखलाया। ऐसा करना क्या उसके लिए उचित था। उत्तरमें मुनिने कहा कि नहीं ॥११॥
मुनि कहते हैं-द्वारावती नगरीमें नारायण (कृष्ण) राजा राज्य करता था। एक दिन ऋषिनिवेदकने आकर राजासे निवेदन किया कि मेदर्ज मुनि ( ज्ञानसागर ) आकर उद्यानमें विराजमान हैं। इस शुभ समाचारको सुनकर कृष्णने जाकर उक्त मुनिराजकी वन्दना की। पश्चात् उसने मुनिके शरीरको व्याधिग्रस्त देखकर अपने वैद्यसे पूछा । उसने मुनिकी व्याधिको दूर करनेके लिए रालकपिष्टपृक्त प्रयोग (?) बतलाया। तब कृष्णने अन्य पडिगाहनेवाले दाताओंको रोककर स्वयं रुक्मिणीके घरपर मुनिराजके लिए रालकपिष्ट पिण्डोंको दिया। इससे मुनिका शरीर नीरोग हो गया । तत्पश्चात् किसी समय कृष्ण के पूछनेपर मुनिने कहा कि कौके उपशान्त हो जानेसे मैं रोग रहित हो गया हूँ। यह सुनकर वैद्यको मुनिके ऊपर बहुत क्रोध उत्पन्न हुआ। वह समयानुसार मरकर
१. फ मयूरोजगारा। २ प अहं कथयिष्यामि, फ ब अहं कथयामि । ३. फ गच्छत् । ये ये काष्ट । ४. प॰मवलोकयतां तक्षां तमदीदर्शन इति शमवलोकयंतां तक्षणां त्तमदर्शयन् इति । ५. प ब वयं ब्रूमः, फ वयं ब्रुमः । ६. फ ब विज्ञप्तः । ७. फ मेदजमुनिरागतोद्याने, ब मेदजमनिरागत्योद्याने, श मेदर्ज मुनिराग
तोद्याने । ८. श व्याधिनं । ९. फ रालकपिष्टः प्रोक्तं प्रयोग । १०. प श कर्मणा उपशमे । Jain Education International For Private & Personal Use Only
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