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________________ १. पूजाफलम् ६ स्फोटयेति । तेनोक्तं जलसिरेयं जलपूरो निःसरिष्यतीति । तथापि स्फोटितम् । तदनु निर्गतं जलम् । राजादीनां निर्गमने संदेहोऽभूत् । ततो राजा दर्भशय्यायां द्विविधसंन्यासेन स्थितः। नागकुमारः प्रत्यक्षीभूय वक्तुं लग्नः । कालमाहात्म्येन रत्नमयी प्रतिमा रक्षितुं न शक्यते इति मया जलपूर्ण लयनं [कृतम्] । ततस्त्वया जलापनयनायाग्रहो न कर्तव्य इति महताग्रहेण दर्भशय्याया उत्थापितो राजा । ततस्तं पृच्छति स्म-केनेदं लयनं कारितं, तथा वल्मीकमध्ये प्रतिमा केन स्थापितेति। नागकुमारः प्राह- अत्रैव विजयाधैं उत्तरश्रेण्यां नभस्तिलकपुरे राजानौ अमितवेगसुवेगौ अत्रार्यखण्डे जिनालयान् वन्दितुमागतो मलयगिरौ रावणकृतजिनगृहानपश्यताम् । वन्दित्वा तत्र परिभ्रमन्तौ पार्श्वनाथप्रतिमा लुलोकाते । तां मञ्जूषायां निक्षिप्य गृहीत्वेमं पर्वतमागतौ । अत्र मञ्जूषां व्यवस्थाप्य क्वापि गतो। आगत्य यावदुत्थापयतस्तावन्नोत्तिष्ठति मञ्जूषा । गत्वा तेरपुरे अवधिबोधिं महामुनिं पृष्ठवन्तौ मञ्जूषा किमिति नोत्तिष्टतीति । तैरवादीयं मञ्जूषा लयणस्योपरि लयणं कथयति । अयं सुवेगोऽपध्यानेन मृत्वा गजो भूत्वा तां मञ्जूषां यदा करकण्डुस्तामुत्पाटयिष्यति तदा गजः संन्यासेन दिवं यास्यति इति प्रतिमास्थिरत्वमवधार्येदं लयणं केन कारितमिति पृष्टो मुनिः कथयति-विजयार्धदक्षिणशिल्पीने कहा कि यह जलकी नाली है, इसके तोड़नेसे जलका प्रवाह निकलेगा। परन्तु यह सुन करके भी करकण्डने उसे तुड़वा दिया। तत्पश्चात् उससे जलका प्रवाह निकल पड़ा। राजा आदिको उक्त जल-प्रवाहसे निकलनेमें सन्देह हुआ। तब राजा दो प्रकारके संन्यासको धारण करके कुशासनपर स्थित हो गया। तब वहाँ नागकुमार देव प्रगट होकर इस प्रकार कहने लगा-कालके प्रभावसे इस रत्नमयी प्रतिमाकी रक्षा नहीं की जा सकती है, इसलिए मैंने इस लयनको जलसे परिपूर्ण किया है । अतएव आपको इस जलके नष्ट करनेका आग्रह नहीं करना चाहिए। इस प्रकार कहकर नागकुमारने राजाको बहुत आग्रहके साथ उस कुशासनके ऊपरसे उठाया । तत्पश्चात् उसने नागकुमारसे पूछा कि इस लयनको किसने बनवाया है तथा बाँवीके बीचमें प्रतिमाको किसने स्थापित किया है। नागकुमार बोला- इसी विजयाध पर्वतके ऊपर उत्तर श्रेणिमें नभस्तिलक नामका नगर है। वहाँ के राजा अमितवेग और सुवेग इस आर्यखण्डमें जिनालयोंकी वन्दना करनेके लिए आये थे। उन्होंने मलयगिरिके ऊपर रावणके द्वारा बनवाये गये जिन-भवनोंको देखा। तब उन दोनोंने उक्त जिनभवनोंकी वन्दना करके वहाँ परिभ्रमण करते हुए पार्श्वनाथकी प्रतिमाको देखा । वे उक्त प्रतिमाको पेटीमें रखकर और उसे साथमें लेकर इस पर्वतके ऊपर आये । यहाँ उस पेटीको रखकर वे कहीं दूसरे स्थानमें गये । वापिस आकर जब उन्होंने उसे उठाया तो वह पेटी नहीं उठी। तब उन्होंने तेरपुरमें जाकर अवधिज्ञानी मुनिसे पेटीके न उठनेका कारण पूछा। उन्होंने कहा कि यह पेटी लयनके ऊपर लीन होनेको कहती है । यह सुवेग अपध्यानसे मरकर हाथी होगा और फिर जब करकण्डु उस पेटीको तुड़वावेगा तब वह हाथी संन्यासपूर्वक मरणको प्राप्त होकर स्वर्गमें पहुँचेगा। इस प्रकार प्रतिमाकी स्थिरताको जानकर उन्होंने पुनः मुनिराजसे पूछा कि इस लयनको किसने निर्मित कराया है। उत्तरमें मुनिराज बोले-विजयाकी दक्षिण श्रेणिमें रथनूपुर नामका नगर है। वहाँ १. श रत्नमयीं। २. फ गृहान् पश्यतां । ३. श तत्र भ्रमन्तौ। ४. ब-प्रतिपाठोऽयम् । फ ललोकते तां-प श लुलोकते तां। ५. प ब श यावदुच्चायतस्ताव । ६. ब करकंडुभूपस्ता । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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