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________________ ग्रन्थकार-प्रशस्तिः कलाविलासः परिपूर्णवृत्तो दिगम्बरालकृतिहेतुभूतः ।। श्रीनन्दिसूरिमुनिवृन्दवन्द्यस्तस्मादभूच्चन्द्रसमानकीर्तिः ।।८॥ चार्वाकबौद्धजिनसांख्यशि-द्विजानां वाग्मित्ववादिगमकत्वकवित्ववित्तः। साहित्यतर्कपरमागमभेदभिन्नः श्रीनन्दिसूरिगगनाङ्गणपूर्णचन्द्रः ॥६॥ ॥ समाप्तोऽयं पुरयास्रवाभिधो ग्रन्थः । सेवा किया करते हैं उसी प्रकार वे (देव) इनके भी पादों (चरणों) की सेवा किया करते थे, तथा वे समुद्र के समान निरन्तर समस्त प्राणियोंके ऊपर दया रहते थे ॥७॥ उनके शिष्य मुनिसमूहके द्वारा वंदनीय श्रीनन्दो सूरि आविर्भूत हुए । उनको कीर्ति चन्द्रके समान थी-चन्द्र जहाँ सोलह कलाओंसे विलसित होता है वहाँ वे श्रीनन्दी बहत्तर कलाओंसे विलसित थे, जैसे पूर्णिमाका चन्द्र परिपूर्ण व वृत्त (गोल) होता है वैसे ही वे भी परिपूर्ण वृत्त (चारित्र) से सुशोभित-महाव्रतोंके धारक-थे, तथा चन्द्रमा यदि दिगम्बरकी-दिशाओं व आकाशकी-शोभाका हेतुभूत है तो वे भी दिगम्बरों ( मुनिजनों ) की शोभाके हेतुभूत-उन सबमें श्रेष्ठ-थे ॥८॥ चार्वाक, बौद्ध, जैन, सांख्य और शिवभक्त ब्राह्मणोंको वामित्व, वादित्व, गमकत्व और कवित्वरूप धन जैसे, तथा साहित्य, तर्क (न्याय) और परमागमके भेदसे भेदको प्राप्त वे श्रीनन्दी सूरिरूप आकाशके मध्यमें पूर्ण चन्द्रमाके समान थे (?) ॥६॥ इस प्रकार पुण्यासूब नामका यह ग्रन्थ समाप्त हुआ १. प तिहेतु श लक्षतिहेतु। २. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श कवित्वचित्तः । ३. श गणनांगण । JainEduca४. अतोऽग्रे 'द्वितीयसूत्रेण सह प्रमाणमनुष्टुभां' इत्यधिक पाठ उपलभ्यते । www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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