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________________ : ६–१५, ५६ ] ६. दानफलम् १५ ३२५ तन्मारणमति त्वं कृतवान् इति त्वां ते द्विषन्ति इति । निशम्य मुनिं नत्वा ययौ, क्रमेण राजगृहं प्राप्तस्तद्बहिरनेकशुष्क वृक्षसंकीर्णं वनं प्रविष्टः । तद्वनस्वामी वैश्यपुत्रो राजकीयमालाकारिणामधिनायकः कुसुमदत्तः पूर्वं तद्वनं शुष्कमित्युद्विग्नस्तच्छेदनमना अवधिबोधं मुनिं पृच्छति स्म - शुष्कं वनं पुनरुद्भविष्यति नो वा । तेनावादि - कश्चित्पुण्यपुरुष श्रागत्य तत्र प्रवेक्ष्यति, तत्तदैव पुण्यफलाढ्यं भविष्यति । तत्प्रभृति स कुसुमदत्तस्तत्पालयंस्तस्थौ । धन्यकुमारस्तत्प्रविष्टस्तदा शुष्कसरस्यादिकं स्वच्छजलपूर्ण महीरुहादयः पुष्पादियुताश्च जज्ञिरे । स एकस्मिन् सरसि जिनं स्मृत्वा जलं पीत्वैकस्मिन् वृक्षतले उपविवेश । स तदा दृष्ट्वा कुसुमदत्तो मुनीन् मनसि नत्वागत्य तद्वनं प्रविश्य तं विलोक्य नत्वा 'कस्मादागतोऽसि' इति पप्रच्छ । स बभाणाहं वैश्यात्मजो देशान्तरी । इतर उवाचाहमपि वैश्यो जैनो त्वं प्राघूर्णको भव । सोऽभ्युपजगाम । तदा कुसुमदत्तोऽतिसंभ्रमेण स्वगृहं निनायोक्तवांश्च 'मद्भगिनी पुत्रोऽयम्' । तदा तद्वनिता मज्जामातृको भविष्यतीति मज्जन- भोजनादिनाति 3 तस्य चकार । तत्पुत्री पुष्पावती, सात्यासक्ता बभूवैकदा तदग्रे पुष्पाणि सूत्रं च आकर तुम उत्पन्न हुए हो । पूर्वं भवमें चूँकि तुम उनके मारने का विचार रखते थे, इसलिए वे तुमसे इस समय द्वेष करते हैं । इस प्रकार उन अवधिज्ञानी मुनिराजसे अपने पूर्व भवोंके वृत्तान्तको सुनकर धन्यकुमारने उन्हें नमस्कार किया और वहाँ से आगे चल दिया । वह क्रमसे आगे चलकर राजगृह नगर में पहुँचा । वहाँ वह नगर के बाहर अनेक सूखे वृक्षोंसे व्याप्त एक वनके भीतर प्रविष्ट हुआ। उस वनका स्वामी एक कुसुमदत्त नामका वैश्यपुत्र था जो राजाके मालियोंका नेता था । पूर्वमें जब यह वन सूख गया था तब उसने खिन्न होकर उसे काट डालने का विचार किया था । उस समय उसने किसी अवधिज्ञानी मुनिसे पूछा था कि यह मेरा सूखा हुआ वन क्या कभी फिरसे हरा-भरा हो सकेगा ? इसके उत्तर में मुनिने बतलाया था कि जब कोई पुण्यशाली पुरुष आकर उसके भीतर प्रवेश करेगा उसी समय वह वन पवित्र फलोंसे परिपूर्ण हो जावेगा । उसी समयसे वह कुसुमदत्त उसका संरक्षण करता हुआ वहाँ स्थित था । इस समय जैसे ही धन्यकुमार आकर उसके भीतर प्रविष्ट हुआ वैसे ही सब सूखे तालाब आदि निर्मल जलसे तथा वृक्ष आदि पुष्पों आदिसे परिपूर्ण हो गये । धन्यकुमारने वहाँ जिन भगवान्का स्मरण करते हुए एक तालाबपर जाकर जल पिया और फिर वह वहीं पर एक वृक्षके नीचे बैठ गया । वह कुसुमदत्त इस आश्चर्यजनक घटना को देखकर उन मुनिराजको मन-ही-मन नमस्कार करता हुआ आया और उस वनके भीतर प्रविष्ट हुआ । उसने धन्यकुमारको देखकर उसे नमस्कार करते हुए पूछा कि तुम कहाँसे आये हो ? धन्यकुमारने उत्तर दिया कि मैं एक वैश्यपुत्र हूँ और देशान्तर में भ्रमण कर रहा हूँ। यह सुनकर कुमुमदत्त ने कहा कि मैं भी वैश्य हूँ और जैन हूँ, तुम मेरे अतिथि होओ। धन्यकुमारने इस बातको स्वीकार कर लिया । तच कुसुमकान्तने उसे शीघ्रतासे घर ले जाकर कहा कि यह मेरा भगिनीपुत्र ( भागिनेय - भानजा ) है | यह सुनकर कुसुमदत्तकी स्त्रीने यह मेरा जामाता होगा, ऐसा सोचकर उसके स्नान एवं भोजन आदि की समुचित व सन्तोषजनक व्यवस्था की । उसके पुष्पावती नामकी एक १. ब- प्रतिपाठोऽयम् । श पूर्वं त्वन्मारणमति त्वं कृतवंतः इति । २. प श पुत्रो । ३ ब प्रतिपाठोऽयम् । श तत्साश्चर्यं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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