SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 337
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३१६ पुण्यात्रवकथाकोशम् [६-१५, ५६ : महोत्साहेन तजातकर्म चकार । दशमदिने तत्रत्यविश्वजिनालयेष्वभिषेकादिकं कृत्वा दोनानाथान् स्वर्णादिदानेन प्रीणयित्वा तस्मिन्नुत्पन्ने स्ववर्या धन्या जाता इति तस्य धन्यकुमार इति नाम कृतम् । स धन्यकुमारः स्ववालक्रीडया बन्धून् संतोषयामास । जैनोपाध्यायान्तिकेऽखिलकलाकुशलो जज्ञे । तत्त्यागभोगादिकं विलोक्य देवदत्तादयो बभणुः 'वयमुपार्जका अयं भक्षकः' इति । तत् श्रुत्वा प्रभावत्या श्रेष्ठी भणितो धन्यकुमारं व्यवहारकरणे योजय । ततः श्रेष्ठिनोत्तममुहूर्ते शतद्रव्यं तत्पोत्ये निक्षिप्यापणे उपवेशितः, उक्तं च तस्यैतद् द्रव्यं दत्त्वा किंचिद् ग्राह्यम् , तदपि दत्त्वा किंचिद् ग्राह्यम् , तदपि दत्त्वा किंचिदिति यावद् भोजनकालो भवति तावदित्थं व्यवहारं कृत्वा पश्चाद् गृहीतं वस्तु वण्ठस्य हस्ते दत्वा भोक्तुमागच्छेति निरूप्य श्रेष्ठी गृहं गतः । इतो धन्यकुमारोऽङ्गरक्षकयुतो यावदापणे आस्ते तावच्चतुर्बलीवदयुतं काष्ठभृतं शकट कोऽपि विक्रयितुमानीतवान् । तेन द्रव्येण तत् संजग्राह कुमारस्तदपि दत्त्वा मेषं गृहीतवान् , तमपि दत्त्वा मञ्चकपादकान् जग्राह । ततो गृहमाययौ । तदागमने माता 'पुत्रः प्रथमदिने व्यवहारं कृत्वा समागतः' इति महाप्रभावनां चकार । तां दृष्ट्वा ज्येष्टपुत्रा ऊचुःअयं प्रथमदिन एव शतद्रव्यं विनाश्यागतः । तथापि माताऽस्यैवंविधा प्रभावनां करोत्यस्मासु आया । फिर उसने अतिशय उत्साह के साथ पुत्रका जन्मोत्सव मनाया। पश्चात् दसवें दिन उसने वहाँके समस्त जिनालयोंमें अभिषेक आदि कराकर दीन और अनाथ जनोंको सुवर्ण आदिका दान दिया। उसके उत्पन्न होनेपर चूँकि सजातीय जन धन्य हुए थे अतएव उसका नाम धन्यकुमार रखा गया। वह धन्यकुमार अपनी बाल-लीलासे बन्धुजनोंको सन्तुष्ट करने लगा। पश्चात् वह जैन उपाध्यायके समीपमें पढ़ करके समस्त कलाओं में कुशल हो गया। उसके दान और भाग आदिको देखकर देवदत्त आदि कहने लगे कि हम लोग तो कमाते हैं और यह धन्यकुमार उस द्रव्यको यों ही उड़ाता-खाता है । यह सुनकर प्रभावतीने सेठसे कहा कि धन्यकुमारको किसी व्यापार कार्यमें लगाओ। तब सेठने शुभ मुहूर्तमें उसके कपड़ेमें सौ मुद्राएँ रखकर उसे दूकानपर बैठाते हुए कहा कि इस धनको देकर उसके बदलेमें किसी दूसरी वस्तुको लेना, फिर उसको भी देकर अन्य वस्तुको लेना, तत्पश्चात् उसको भी देकर और किसी वस्तुको लेना; इस प्रकारका व्यवहार तब तक करना जब तक कि भोजनका समय न हो जावे। इस प्रकारसे व्यवहार करके अन्तमें जो वस्तु प्राप्त हो उसे भृत्यके हाथमें देकर भोजनके लिए आ जाना। इस प्रकार कह कर सेठ घर चला गया। इधर धन्यकुमार अंगरक्षकोंसे संयुक्त होकर दूकानपर बैठा था कि उस समय कोई चार बैलोंसे संयुक्त लकड़ियोंसे भरी हुई गाड़ीको बेचनेके लिये लाया। तब धन्यकुमाग्ने उन सौ मुद्राओंको देकर उस गाड़ीको ख़रीद लिया। फिर उसको देकर उसने बदले में एक मेंदाको ले लिया। तत्पश्चात् उसको भी देकर उसने खाटके चार पायोंको खरीद लिया । फिर वह घर आ गया । उसके घर वापस आनेपर माताने यह विचार करके कि 'पुत्र पहले दिन व्यवसाय करके आया है' उसकी बहुत प्रभावना की । उसको उत्सव मनाते हुए देखकर ज्येष्ठ पुत्रोंने कहा कि यह पहले दिन ही सौ मुद्राओंको नष्ट करके आया है फिर भी माँ इसकी इस प्रकारसे प्रभा १. बतलोले। २. ज तस्यैव द्रव्यं फ तस्मै तद् द्रव्यं । ३. ज तन् संजग्राह श तन्न मंजबाट । ४. फ माता तस्यैवंविधां । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy