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________________ २९८ पुण्यात्रवकथाकोशम् [६-५, ४६ : जितम् । कथमित्युक्ते सुकेतुं सखायं प्राप्यानन्तसंसारकारकं महामोहरिपुमजयमिति । तदनु सुकेतुना निवार्यमाणोऽप्यदीक्षत । सुकेतुस्तल्लक्ष्मी तत्पुत्राय दत्त्वा दानादिकं कुर्वन् सुखेन तस्थौ। तत्प्रभा द्रष्टुमशक्तो मणिनागदत्तः स्वनागालये तपश्चरणपूर्वकं नागानारराध । पूर्वमर्जुनास्यं मातङ्गं संबोधयन्तीयंक्षीईष्ट्रवा कामज्वरेण मृतस्तत्पुत्रस्तन्नागालये उत्पलदेवो जातः, इत्युपवासकथाकथने कथितम् । स प्रसन्नो भूत्वोक्तवान्- हे नागदत्त, किं कायक्लेशं करोषि । स उवाच- त्वामाराधयामि । किमिति । यया श्रिया सुकेतु वादं कृत्वा जयामि तां मे देहि । देवो बभाण- त्वं पुण्यहोनस्ते श्रियं दातुन शक्नोमि । वणिगवोचत्-पुण्यहीन इति त्वामाराधितवान् , अन्यथा किं तवाराधनया । सुरोऽवत लक्ष्मी विहायान्यं ते [न्यत्ते ] भणितं करोमि । तर्हि सुकेतुं मारय। निर्दोष मारयितुं नायाति, कमर्पि दोषं तस्मिन् व्यवस्थाप्य मारयामि । केनाप्युपायेन मारय, तेन मृतेनालम् । देवोऽभणत् हुई है। कारण यह कि मैंने सुकेतु जैसे मित्रको पाकर अनन्त संसारके कारणभूत मोहरूपी महान् शत्रुको जीत लिया है । तत्पश्चात् उसने सुकेतुके रोकनेपर भी दीक्षा ग्रहण कर ली । तब सुकेतुने जिनदेवकी समस्त सम्पत्ति उसके पुत्रके लिए दे दी और वह स्वयं दानादि कार्योंको करता हुआ सुखसे स्थित हुआ। इधर मणिनागदत्त सुकेतुके प्रभावको नहीं देख सकता था। इसलिए उसने अपने नागभवनमें जाकर तपश्चरणपूर्वक नागोंकी आराधना की । पहिले किसी अर्जुन नामके चाण्डालको सम्बोधित करती हुई यक्षियोंको देखकर नागदत्तका पुत्र (भवदत्त) कामज्वरसे पीड़ित होता हुआ मर गया था और उसी नागभवनमें उत्पल देव हुआ था, यह उपवासफलंकी कथा (५-८, ४१) में वर्णित है । उस समय उक्त उत्पल देव प्रसन्न होकर बोला कि हे नागदत्त ! यह कायक्लेश तुम किसलिए कर रहे हो ? नागदत्त बोला कि यह सब तुम्हारी आराधना-प्रसन्नता के लिए कर रहा हूँ। तत्पश्चात् उन दोनों में इस प्रकारसे वातालाप हुआ-- उत्पल-मेरी आराधना तुम किसलिए कर रहे हो ? नागदत्त-जिस लक्ष्मीके द्वारा मैं सुकेतुसे विवाद करके उसे परास्त कर सकूँ उस लक्ष्मीको तुम मुझे प्रदान करो। उत्पल-तुम पुण्यसे रहित हो, इसलिए मैं तुम्हें वैसी लक्ष्मी देने के लिए समर्थ नहीं हूँ । नागदत्त-पुण्यहीन हूँ, इसीलिए तो मैंने तुम्हारी आराधना की है। अन्यथा, तुम्हारी आराधनासे मुझे प्रयोजन ही क्या था । उत्पल-लक्ष्मी देनेकी बातको छोड़कर और जो कुछ भी तुम कहोगे उसे मैं परा करूँगा। नागदत्त-तो फिर तुम सुकेतुको मार डालो । उत्पल-सुकेतु निर्दोष है, अतः वह मारनेमें नहीं आ सकता है; इसलिए उसके विषयमें कुछ दोषारोपण करके उसे मार डालता हूँ। १. ज सहायं । २. फ ब प्यदीक्षित । ३. [ तत्प्रभावं]। ४. ज वासकथने । ५. श 'स' नास्ति । ६.श हीनस्ते तव श्रियं । ७. बन्यंस्ते। ८. श किमपि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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