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________________ ६-५, ४६] ६. दानफलम् ५ २९५ मुनिः सौधर्मे कनकविमाने सौधर्मेन्द्रस्यान्तः पारिषद्यः कनकप्रभनामा देवो जातः, प्रभावती कनकप्रभदेवस्य कनकप्रभाख्या देवी जाता। तत्र तो सुखेन स्थितौ । ततोऽवतीर्य स देवोऽयं मेघेश्वरोऽभूत् , सा देवी आगत्याहं सुलोचना जातेति सकृन्मुनिदानेन शक्तिसेनस्तथाविधोऽभूत् , पारापतौ तदनुमोदमात्रेण तथाविधौ जज्ञाते किं यस्त्रिशुद्धया तद्ददाति सततं स तथाविधो न स्यादिति ॥३-४॥ [४६] किं न प्राप्नोति देही जगति खलु सुखं दाता बुधयुतो रूढः श्रेष्ठी सुकेतुर्जितभयकुपितोऽजैषोत् स भुवने । दानाद्देवोपसर्ग तदनु सुतपसा मोक्षं समगमत् तस्माद्दानं हि देयं विमलगुणगणैर्भव्यैः सुमुनये ॥५॥ अस्य कथा- अत्रैव द्वीपे पूर्वविदेहे पुष्कलावतीविषये पुण्डरीकिण्यां राजा वसुपालस्तत्रातीव जैनो वैश्यः सुकेतुः भार्या धारिणी । स एकदा व्यवहारार्थ द्वीपान्तरं गच्छन् शिवकरोद्याने नागदत्तश्रेष्ठिकारितनागभवननिकटे विमुच्य स्थितः मध्याह्नकाले तन्निमित्तं दिया । इस प्रकारसे मरणको प्राप्त होकर हिरण्यवर्मा मुनि सौधर्म स्वर्गके भीतर कनक विमानमें सौधर्मेन्द्रकी अभ्यन्तर परिषदका कनकप्रभ नामका पारिषद देव हुआ और वह प्रभावती वहींपर उस कनकप्रभ देवकी कनकप्रभा नामकी देवी हुई। इस प्रकार वे दोनों उस स्वर्गमें सुखपूर्वक स्थित हुए। तत्पश्चात् वहाँ से च्युत होकर वह देव तो यह मेघेश्वर (जयकुमार) हुआ है और वह देवी आकर मैं सुलोचना हुई हूँ। इस प्रकार एक बार मुनिके लिए आहारदान देनेके कारण जब वह शक्तिसेन इस प्रकारकी विभूतिसे संयुक्त हुआ है तथा वे दोनों कबूतर व कबूतरी भी उक्त दानकी अनुमोदना करने मात्रसे ही ऐसी विभूतिसे युक्त हुए हैं तब फिर भला जो मन, वचन व कार्यकी शुद्धिपूर्वक उत्तम पात्रके लिए आहारादि निरन्तर देता है वह वैसी विभूतिसे संयुक्त नहीं होगा क्या ? अवश्य होगा ॥४॥ सत्पात्रदान करनेवाला दाता मनुष्य विद्वानोंसे संयुक्त होकर कौन-से सुखको नहीं प्राप्त होता है ? अर्थात् वह सब प्रकारके सुखको प्राप्त होता है। देखो, लोकमें सुप्रसिद्ध उस सुकेतु सेठने भय और क्रोधको जीतकर देवकृत उपसर्गको भी जीता और फिर अन्तमें वह उत्तम तपश्चरण करके मोक्षको भी प्राप्त हुआ। इसलिए निर्मल गुणोंके समूहसे संयुक्त भव्य जीवोंका कर्तव्य है कि वे उत्तम मुनिके लिए दान देव ॥५॥ इसकी कथा इस प्रकार है- इसी द्वीपके भीतर पूर्व विदेहमें स्थित पुष्कलावती देशके अन्तर्गत पुण्डरीकिणी नगर है । वहाँ वसुपाल नामका राजा राज्य करता था। वहींपर दृढ़तापूर्वक जैन धर्मका पालन करनेवाला एक सुकेतु नामका वैश्य रहता था। उसकी पत्नीका नाम धारिणी था । एक समय वह व्यवहारके लिए- व्यापारके लिए-द्वीपान्तरको जाते हुए नागदत्त सेठके द्वारा बनवाये गये नागभवनके समीपमें स्थित शिवंकर उद्यानके भीतर पड़ाव डालकर ठहर १. प श परिषद्यः ब परिषद्य। २. श शतत फ एतत्पदमेव तत्र नास्ति । ३. ब तो जैर्यत्स। ४. बतं निमितं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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