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________________ ६–४, ४५ ] ६. दानफलम् ३-४ रतिवर्मणोक्तं मन्मित्रं कुबेरकान्त श्रेष्ठीति । तदन्वहं तस्यासक्ता जाता । तत्संयोगार्थ जिनपूजानन्तरं वने क्रीडनावसरेऽहं मायया हा नाथ, मां सर्पोऽखाददिति विजल्प्य मूर्च्छया पतिता । तदा स विहलो भूत्वा स्वयं निर्विषां कर्तुं लग्नो न चोत्थिताहम् । तदा कुवेरकान्तसमीपमानोयोक्तवान्- मित्रेमां निर्विषां कुरु । तदा कुवेरकान्तो मत्पति कांचिन्मूलिकामानेतुं मेरुं प्रस्थापितवान् स्वयं मामभिमन्त्रयितुं लग्नः । एकान्ते तमेकमवलोक्योक्तं मया - श्रेष्ठिन् न में सर्पो लग्नः, तवानुरक्ताहम् त्वया मेलनोपायमकरवम् त्वत्संभोगदानेन मां रक्ष | कुबेरकान्तोऽभणद् भगिनि षण्ढकोऽहमिति त्वं शीलवती भवेति भणित्वा गतः । श्रागतेन मत्पतिनाहं स्वपुरं गता । पुनरेकदा पुत्रेण सह रथमारुह्य जिनालयं गच्छन्तीं त्वामलोके । तदा स्वपतिमहमपृच्छमियं केति । सोऽवोचन्मम मित्रवल्लभा प्रियदत्ता । मयोक्तम्- ते सखा नपुंसकः, कथं तस्यापत्यम् । रत्तिवर्मामणत्तस्यैकपत्नीव्रतमिति वनिताभिद्वेषेण तथा षण्ढः भण्यते । तदाहमात्मनिन्दां कृत्वा स्वपुरं गता । एकदा वर्षवर्धन दिनरात्री पौरस्य महारागेण प्रवर्तमानेऽहं स्वदुश्चेष्टितं स्मृत्वा विषण्णा स्थिता । भर्त्रा कारणे पृष्ठे मया यथावन्निरूपिते सोऽव्रत- संसारिणां दुःपरिणतिर्भवति, २९३ पूछा कि यह कौन है । इसपर रतिवर्माने कहा कि यह मेरा मित्र कुबेरकान्त सेठ है । तत्पश्चात् मैं उसके विषय में आसक्त हो गई। फिर उसके साथ मिलापकी अभिलाषासे जिनपूजा के पश्चात् वनमें क्रीड़ाके अवसरपर मैंने कपटपूर्वक पतिसे कहा कि हे नाथ ! मुझे सर्पने काट लिया है । यह कहकर मैं मूर्छासे गिर गई । तब मेरा पति व्याकुल होकर स्वयं ही मुझे निर्विष करने में उद्यत हुआ । परन्तु मैं नहीं उठी । तत्र वह मुझे कुबेरकान्तके पास लाकर उससे बोला कि हे मित्र ! इसे सर्प विष से मुक्त करो | तब कुबेरकान्तने मेरे पतिको किसी जड़ीको लानेके लिये मेरु पर्वतके ऊपर भेजा और स्वयं मेरे ऊपर मन्त्रका प्रयोग करने लगा। जब मैंने उसे एकान्तमें अकेला पाया तब मैंने उससे कहा कि हे सेठ ! मुझे सर्पने नहीं काटा है । किन्तु मैं तुम्हारे विषय में अनुरक्त हुई हूँ । इसीलिये मैंने तुम्हारा संयोग प्राप्त करनेके लिये यह उपाय रचा है । तुम मुझे अपना संभोग देकर मेरी रक्षा करो। इसपर कुबेरकान्त बोला कि हे बहिन ! मैं तो नपुंसक हूँ, इसलिये तू शीलवती रह- उसको भंग करने का विचार मत कर। ऐसा कहकर वह चला गया। इसके पश्चात् जब मेरा पति वापिस आया तब मैं उसके साथ अपने नगर में वापिस चली गई। तत्पश्चात् एक समय मैंने पुत्र के साथ रथपर चढ़कर जिनालयको जाती हुई तुम्हें देखा। उस समय मैंने पतिसे पूछा कि यह कौन स्त्री है ? तब उसने उत्तर दिया कि यह मेरे मित्रकी पत्नी प्रियदत्ता है । इसपर मैंने कहा कि तुम्हारा मित्र तो नपुंसक है, फिर उसके पुत्र कैसे हो सकता है । यह सुनकर रतिवर्माने कहा कि उसके एकपत्नीव्रत है, इसीलिये स्त्रियाँ उसे द्वेषबुद्धि वश नपुंसक कहा करती हैं । यह सुनकर मैं आत्मनिन्दा करती हुई अपने नगरको गई । एक समय बाढ दिवसकी रात में पुरवासी जनकी अतिशय रागपूर्ण प्रवृत्तिके होनेपर मुझे अपनी दुष्ट प्रवृत्तिका स्मरण हो आया । इससे मुझे बहुत विषाद हुआ । तब मेरी उस खिन्न अवस्थाको देखकर पति ने इसका कारण पूछा। उस समय मैंने उससे अपने पूर्व वृत्तान्तको ज्योंका-त्यों कह दिया । १. श कांचिनमूलिका । २. ब तमेवमवलो । ३. प श्रेष्ठिन् मे । ४. ब लग्नस्तावरवताहं । ५. जप पंडोह पंडुको । ६. ब मलोक्ये । ७. ज प ब तथा भण्यते । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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