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________________ ६-४, ४५] ६. दानफलम् ३.४ २९१ तदा वायुरथः सुराद्रिनिकटे सकलवियञ्चरान् मेलितवान् तत्स्वयंवरार्थम् । पाण्डुकवने स्थित्वा मक्तां रत्नमालां सौमनसवने संस्थित्वा मोचनानन्तरं मेरुं त्रिःपरीत्य यः प्रथम रत्नमालां गृह्णाति स जयतीति घोषयित्वा प्रभावत्या तदा तस्मिन् गतियुद्धे बहवः खेचरा जिताः। तदनु हिरण्यवर्मणा सा जिता, ततस्तया तस्य माला निक्षिप्ता। जगदाश्चर्यमभूत् । हिरण्यवर्मा प्रभावत्यादिसहस्रकुमारीरवृणीत, जगदाश्चयविभूत्या सुखेनातिष्ठत् । ___ आदित्यगतिस्तस्मै स्वपदं वितीर्य निष्क्रान्तो मुक्तिमितः। हिरण्यवर्मोभयश्रेण्यौ साधयित्वा वियञ्चराधिपो भूत्वा महाविभूत्या प्रभावत्या समं सुखमन्वभूत् । दानानुमोदजनितपुण्यफलेन प्रभावती सुवर्णवर्मादिकान् पुत्रानलभत । बहुकालं राज्यं कृत्वा कदाचित्पुण्डरी. किणीं जिनगृहवन्दनार्थ हिरण्यवर्मप्रभावत्यौ गते । तत्पुरदर्शनेनैव जातिस्मरे अजनिष्टाम । स्वपुरं गत्वा सुवर्णवर्मणे राज्यं दत्त्वा हिरण्यवर्मा गुणधरचारणान्तिके बहुभिर्दीक्षितश्चारणोऽजनि सकलश्रुतधरश्च । प्रभावती बहीभिः सुशीलार्जिकाभ्यासे दीक्षिता। एकदा गुणधरमुनिः ससमुदायः शिवंकरोद्यानवनेऽवतीर्णवान् । तत्र पुण्डरीकिण्यां गुणपालो नृपो वनिता कुबेरकान्तश्रेष्ठिपुत्री कुबेरश्रीः । स राजा सपरिजनो वन्दितुं निर्गतो वन्दित्वा वायुरथने उसके स्वयंवरके लिये सुराद्रि (मेरु) के निकट समस्त विद्याधरोंको आमन्त्रित किया। उसने घोषणा की कि पाण्डुक वनमें स्थित होकर छोड़ी गई रत्नमालाको सौमनस वनमें स्थित होकर जो छोड़ने के पश्चात् मेरुकी तीन प्रदक्षिणा करके उस रत्नमालाको सबसे पहिले ग्रहण कर लेता है वह विजयी होगा। तदनुसार प्रभावतीने उस समय उस गतियुद्धमें बहुत-से विद्याधरोंको पराजित कर दिया। तत्पश्चात् हिरण्यवर्माने उसे इस युद्धमें जीत लिया। तब उसने हिरण्यवर्माके गलेमें वरमाला डाल दी। यह देखकर सब लोगोंको बहुत आश्चर्य हुआ। इस प्रकारसे हिरण्यवर्माने उन प्रभावती आदि एक हजार कुमारिकाओंको वरण कर लिया। फिर वह संसारको आश्चर्यान्वित करनेवाली विभूतिके साथ सुखसे स्थित हुआ। आदित्यगति उसके लिये राज्य देकर दीक्षित हो गया और मुक्तिको प्राप्त हुआ। तत्पश्चात् हिरण्यवर्मा दोनों ही श्रेणियोंको स्वाधीन करके समस्त विद्याधरोंका स्वामी हो गया । वह महती विभूतिसे संयुक्त होकर प्रभावतीके साथ सुखका अनुभव करने लगा। प्रभावतीने उस दानकी अनुमोदनासे प्राप्त हुए पुण्यके प्रभावसे सुवर्णवर्मा आदि पुत्रों को प्राप्त किया। इस प्रकार हिरण्यवर्माने बहुत समय तक राज्य किया। किसी समय वह हिरण्यवर्मा और प्रभावती दोनों जिनगृहकी वंदना करनेके लिये पुण्डरीकिणी पुरीको गये। उस पुरीके देखनेसे ही उन दोनोंको जातिस्मरण हो गया। तब वह हिरण्यवर्मा अपने नगरमें वापिस गया और सुवर्णवर्माको राज्य देकर गुणधर नामक चारणमुनिके निकटमें बहुतोंके साथ दीक्षित हो गया। वह चारण ऋद्धिसे संयुक्त होकर समस्त श्रुतका धारक हुआ। उधर प्रभावतीने भी बहुत-सी स्त्रियोंके साथ सुशीला आर्यिकाके समीपमें दीक्षा ले ली। एक दिन गुणधर मुनि संघके साथ शिवंकर उद्यान-वनमें आये । वहाँ पुण्डरीकिणी पुरीमें गुणपाल नामका राजा राज्य करता था। रानीका नाम कुबेरश्री था जो कुबेरकान्त सेठकी पुत्री थी। वह राजा सेवक जनोंके साथ सपरिवार मुनिकी वंदनाके लिये १. श श्रेष्ठी। २. बवने समं स्थित्वा । २. ब- प्रतिपाठोऽयम् । श गुणधरचरणांतिके । ३. ब सुशीलायिकाभ्यासे । ४. श श्रेष्ठीपुत्री। ५. ज श कुबेरश्री। ६. श 'वन्दितुं' नास्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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