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________________ पुण्यावकथाकोशम् [ ६-२, ४३ : परमनिर्वाणकल्याणपूजां कृत्वा स्वपुरमागतः । इन्द्रादयोऽपि स्वर्लोकं गताः । वृषभसेनादयो यथाक्रमेण मोक्षं गताः । ब्राह्मी सुन्दरी अच्युतं गते । श्रन्ये स्व-स्वपुण्यानुरूपां गतिं ययुः । भरतः पञ्चलक्षनवनवतिसहस्रनव शतनवनवतिपूर्वाणि व्यशीतिलक्षनवनवतिसहस्रनवरातनवनवति पूर्वाङ्गाणि त्र्यशीति लक्षैकोनचत्वारिंशत्सहस्रवर्षाणि राज्यं कुर्वन् तस्थौ । स्वशिरसि पलितमालोक्य स्वसुतायार्ककीर्तये राज्यं वितीर्य कैलाशे श्रष्टाह्निकी पूजां विधाय परिजनं व्याघोट यास्मद्गुरुरेव गुरुरिति मनसि धृत्वा स्वयमेव बहुभिर्दीक्षितः, तदैव केवली जज्ञे, भव्य पुण्यप्रेरणयै कैलक्ष पूर्वाणि विहृत्य कैलाशे निर्वृतः । तस्य सप्तसप्ततिलक्ष पूर्वाणि कुमारकालः, मण्डलिककालः सहस्रवर्षाणि, विजयकालः षष्टिसहस्रवर्षाणि, राज्यकालः पञ्चलक्षनवनवतिसहस्र नवरात नवनवतिपूर्वाणि त्र्यशीतिलक्षनवनवतिसहस्रनवशत नवनवतिपूर्वाङ्गाणि त्र्यशीतिलक्षै कोनचत्वारिंशत्सहस्रवर्षाणि संयमकालो लक्षपूर्वाणीति । भरतस्यायुपश्चतुरशीतिलक्षपूर्वाणि । देवादयस्तन्निर्वाणपूजां विधाय स्वस्थानं गताः । इति व्याघ्रादयोऽपि दानानुमोदेनैवंविधा जाताः, किं ये स्वयं सत्पात्रदानं कुर्वन्ति ते न स्युरित्यादिपुराणसंक्षेपकथा । विस्तरतो महापुराणे ज्ञातव्यमिति ॥ २॥ २८२ शोक हुआ । तब उसने वृषभसेनादिकोंसे सम्बोधित होकर उत्कृष्ट निर्वाणकल्याणककी पूजा की । फिर वह अपने नगर में वापिस आया । इन्द्रादिक भी स्वर्गलोकको चले गये । तत्पश्चात् वृषभसेन गणधर आदि भी यथाक्रमसे मोक्षको प्राप्त हुए। ब्राह्मी और सुन्दरी दोनों अच्युत कल्पको प्राप्त हुई । अन्य सब अपने-अपने पुण्यके अनुसार गतिको प्राप्त हुए । भरत चक्रवर्ती पाँच लाख निन्यानबे हजार नौ सौ निन्यानबे पूर्व, तेरासी लाख निन्यानबे हजार नौ सौ निन्यानबै पूर्वाङ्ग और तेरासी लाख उनतालीस हजार वर्ष तक राज्य करता हुआ स्थित रहा । तलश्चात् उसने एक समय अपने शिरके ऊपर श्वेत बालको देखकर अपने पुत्र अर्ककीर्तिको राज्य दे दिया और कैलाश पर्वतपर जाकर अष्टकी पूजा की । फिर उसने कुटुम्बी जनको वापिस करके 'हमारा गुरु ( पिता ) ही गुरु है ' ऐसा मनमें स्थिर किया और स्वयं ही बहुतों के साथ दीक्षा ग्रहण कर ली । वह उसी समय केवली हो गया । वे भरत केवली भव्य जीवोंके पुण्यकी प्रेरणा से एक लाख पूर्व तक बिहार करके कैलाश पर्वतसे मुक्तिको प्राप्त हुए । भरत चक्रवर्तीका कुमारकाल सतत्तर लाख पूर्व, मण्डलीककाल एक हजार वर्ष, दिग्विजयकाल साठ हजार वर्ष राज्यकाल पाँच लाख निन्यानयै हजार नौ सौ निन्यानचै पूर्व, तेरासी लाख निन्यानौ हजार नौ सौ निन्यानत्रै पूर्वाङ्ग और तेरासी लाख उनतालीस हजार वर्ष; तथा संयमकाल एक लाख पूर्व प्रमाण था । भरतकी आयु चौरासी लाख पूर्व (कुमारकाल ७७००००० ०० पूर्व + मण्डलीककाल १००० वर्ष + दिग्विजयकाल ६०००० वर्ष + राज्यकाल ५६६६६६ पूर्व८३६६६६९ पूर्वाङ्गव ८३३१००० वर्ष + संयमकाल १००००० पूर्व = ८४००००० पूर्व ) प्रमाण थी । भरतके मुक्त हो जानेपर देवादिकोंने उनके निर्वाणकी पूजा की । फिर वे अपने स्थानको चले गये । इस प्रकार व्याघ्र आदि भी जब दानकी अनुमोदना से इस प्रकारकी विभूतिको प्राप्त हुए हैं तब जो स्वयं सत्पात्रदान करते हैं वे क्या ऐसी विभूतिको नहीं प्राप्त होवेंगे ? अवश्य होयेंगे। इस प्रकार यह आदिपुराणकी संक्षिप्त कथा है । विस्तारसे उसे महापुराणसे जानना चाहिए ॥ २ ॥ १. ज लक्षैकान्नव चत्वारिं प श लक्षंकोन्नचत्वारिं । २. श प्रेरणायैक । ३ ज परतः श्वायुषः श्चतुळ व भारतस्य आयुश्चतु ं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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