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________________ २७० gurraasथाको शम् [ ६-२, ४३ : ततो नवविधपुण्य- सप्तगुणयुक्तो भूत्वा 'पुरुपरमेश्वरायाहारदानमदत्त | नाथोऽञ्जलित्रय मिक्षुरसं गृहीत्वा क्षयदानमभणत्, तदा पञ्चाश्चर्याणि जातानि । सा तृतीया अक्षयतृतीया जाता । श्रीवृषभनाथः श्रेयसा चर्या कारित इति भरतः श्रुत्वा संतोषेण श्रेयसः समीपं जगाम । ताभ्यां पुरं राजभवनं च प्रवेशितः सिंहासने उपवेशितः । तदनु भरतोऽप्राक्षोत् कथं त्वया स्वामिनश्चित्तं विबुद्धम् | श्रेयानाह - श्रतः पूर्वमष्टमभवे स्वामी वज्रजङ्घो नाम राजाभूदहं तदा तस्य श्रीमती नाम देवी । तदावाभ्यां सर्पसरोवरतटे चारणयुगलाय दानं दत्तम् । तत्फलेन स राजा भोगभूमिजः श्रीधरदेवः सुविधिनरेन्द्रोऽच्युतो वज्रनाभिश्चक्री, सर्वार्थसिद्धजः, इदानीं वृषभनाथोऽजनि । श्रीमती आर्या, स्वयंप्रभदेवः, केशवः प्रतीन्द्रो धनदेवः सर्वार्थसिद्धिजः, इदानोमहं श्रेयान् जातो मुनिस्वरूपदर्शनेन जातिस्मरोऽभूवमिति तन्मार्ग बुद्धवानिति कथिते भरतः संतुष्टः तं प्रशंस्य कतिपयदिनैः स्वपुरमागतः । इतो वृषभनाथो वर्षसहस्रं तपश्चरणं चकार । पुरिमतालपुरोधाने वटवृक्षतले ध्यानविशेषेण घातिकर्मक्षयेण फाल्गुनकृष्णैकादश्यां कैवल्योऽभूत् । तदां स्फाटिकमहोधरोद्भूत. 1 जातिस्मरण हो गया । इससे उसने आहारकी विधिको जानकर भगवान्का पड़िगाहन किया । तत्पश्चात् उसने दाताके सात गुणोंसे संयुक्त होकर आदिनाथ भगवान्‌को नवधा भक्तिपूर्वक आहार दिया । भगवान्ने तीन अंजुलि प्रमाण ईखके रसको लेकर इस दानको अक्षयदान बतलाया । उस समय श्रेयांसके घरपर पंचाश्चर्य हुए। तबसे वह तृतीया अक्षयतृतीया के नामसे प्रसिद्ध हुई । श्रेयांसने श्री ऋषभदेवको आहार कराया है, यह जानकर भरतको बहुत सन्तोष हुआ । इससे वह श्रेयांसके समीप गया । तब सोमप्रभ और श्रेयांस दोनोंने उसे नगरमें ले जाकर राजभवन के भीतर प्रविष्ट कराते हुए सिंहासनपर बैठाया । उस समय भरतने श्रेयांससे पूछा कि तुमने भगवान् के अभिप्रायको कैसे जाना ? श्रेयांस बोला - इस भवसे पहिले आठवें भवमें भगवान् वज्र जंघ नामके राजा और मैं उनकी श्रीमती नामकी पत्नी था । उस भवमें हम दोनोंने सर्पसरोवरके किनारे दो चारण मुनियोंके लिए आहार दिया था । उससे उत्पन्न हुए पुण्यके प्रभाव से वह राजा क्रमसे भोगभूमिका आर्य, श्रीधर देव, सुविधि राजा, अच्युत इन्द्र, वज्रनाभि चक्रवर्ती, सर्वार्थसिद्धिका अहमिन्द्र और इस समय ऋषभनाथ हुआ है। तथा वह श्रीमतीका जीव क्रमसे आर्या, स्वयंप्रभ देव, सुविधिका पुत्र केशव, अच्युत स्वर्ग में प्रतीन्द्र, धनदेव, सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र और फिर वहाँ से च्युत होकर इस समय मैं श्रेयांस राजा हुआ हूँ । मुझे मुनिके स्वरूपको देखकर जातिस्मरण हो गया था । इससे मैंने श्रीमतीके भवमें दिए गये आहारदानका स्मरण हो जानेसे उसकी विधिको जान लिया था । इस वृत्तान्तको सुनकर भरतको बहुत सन्तोष हुआ । तब उसने श्रेयांस की बहुत प्रशंसा की । फिर वह कुछ दिनों में अपने नगर में वापिस आ गया । यहाँ वृषभनाथने एक हजार वर्ष तक तपश्चरण किया । पश्चात् जब वे पुरिमतालपुर के उद्यान में वट वृक्ष के नीचे ध्यानविशेष (शुक्ल ध्यान) में स्थित थे तब उन्हें घातिया कर्मोंके क्षीण हो जाने से फाल्गुन कृष्णा एकादशी के दिन केवलज्ञान प्राप्त हो गया । उस समय वे भगवान् स्फटिक मणिमय १. श गुणभूत्वा गुरुपरमे । २. फप्रावेशित: । ३. श ' केशवः' नास्ति । ४. व तन्मार्गमबुद्ध इति । ५. ज कैवल्यंऽभूत्तदा व केवलाभूत्तदा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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