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________________ २३२ पुण्यास्रवकथाकोशम् [५-७, ४० श्रीवर्धनादयो द्वात्रिंशदन्ये 'प्रधानपुत्राः पञ्चशताः । एते परस्परं सखायः सर्वेऽप्येकत्रैव यान्त्यायान्ति तिष्ठन्ति । सर्वे ललिता इति ललितघटेति जनेनोक्ताः। एकदा श्रीकान्तनगं पापी गताः । तत्र मृगेभ्यो बाणान् यदा विसर्जयन्ति तदा सर्वेषां धनूषि मोटितानि । ते सर्वेऽपि पतिताः उत्थाय किमिदं कौतुकमिति गवेषयन्तोऽभयघोषमुनिं ददृशुः । अनेनैतत् कृतमिति तत्र केचित् कुपिताः अनर्थ कुर्वाणाः श्रीवर्धनेन निवारिताः। ततस्ते मुनि नेमुः । स धर्मवृद्धिरस्त्वित्युवाच । श्रीवर्धनो धर्ममप्राक्षीत् , मुनिर्निरूपयामास । स तं श्रुत्वानन्तरं निजायुःप्रमाणं पृष्टवान् कुमारः । मुनिरब्रवीत् युष्माकं सर्वेषां मासमेकमायुः । कथमेतन्निश्चय इति चेत्स्वपुरं गच्छतां भवतां मार्ग निरुद्धयानेकस्फटाभिर्भयानकः सर्पः स्थास्यति । स भवत्तर्जनेनादृश्यो भविष्यति । ततोऽग्रे मार्गे उपविष्टं मर्त्यशिशुं द्रक्ष्यय । स च भवद्दर्शनेन प्रवृद्धयातिभयानकराक्षसरूपेण भवतो गिलितुमागमिष्यति । सोऽपि तर्जनेनादृश्यः स्यात् । पुरं प्रविश्य राजमार्गेण स्वभवनगमने काचिदन्धा प्रासादोपरिभूमौ स्थित्वा बालकामेध्यं भूमौ निक्षेप्स्यति । तत् श्रीवर्धनोत्तमाङ्गे पतिष्यति । तथा भवतां मातर आगामिन्यां रात्री राज्य करता था । रानी का नाम वारुणी था। उनके श्रीवर्धन आदि बत्तीस पुत्र थे । बत्तीस ये राजपुत्र तथा पांच सौ मन्त्रिपुत्र इनमें परस्पर मित्रता थी। वे सब एक ही स्थानमें जाते-आते व ठहरते थे। चूंकि वे सब ही सुन्दर थे, इसलिए मनुष्य उन सबको 'ललितघट' नामसे सम्बोधित करने लगे थे। वे सब एक दिन शिकारके विचारसे श्रीकान्त पर्वतपर गये। वहाँ जाकर उन सबने जब मृगोंके ऊपर बाण छोड़े तब उनके धनुष चूर्ण-चूर्ण हो गये और वे सब गिर गये । पश्चात् वे उठकर इस आश्चर्यजनक घटनाकी खोज करने लगे। उस समय उन्हें एक अभयघोष नामके मुनि दिखाई दिये । उनमें से कितनोंके मनमें विचार आया कि यह कृत्य इसीने किया है । इससे वे क्रोधित होकर मुनिका अनिष्ट करनेके लिए उद्यत हो गये। परन्तु श्रीवर्धनने उन्हें ऐसा करनेसे रोक दिया । तब उन सबने मुनिको नमस्कार किया। मुनिने सबको धर्मवृद्धि कहकर आशीर्वाद दिया। श्रीवर्धनके पूछनेपर मुनिने धर्मकी प्ररूपणा की। धर्मश्रवण करनेके पश्चात् श्रीवर्धनकुमारने उनसे अपनी आयुके प्रमाणको पूछा । मुनिने कहा कि तुम सबकी आयु अब एक मास प्रमाण ही शेष रही है । यदि तुम इस बातका निश्चय करना चाहते हो तो इन घटनाओंको देखकर कर सकते हो- जब तुम सब अपने नगरको वापिस जाओगे तब तुम्हें बीचमें अनेक फणोंसे भयानक सर्प तुम्हारे मार्गको रोककर स्थित मिलेगा। परन्तु वह आप लोगोंकी भर्त्सनासे दृष्टिके ओझल हो जावेगा । उसके आगे तुम सब मार्गमें बैठे हुए एक मनुष्य बालकको देखोगे। वह तुम लोगोंको देखकर वृद्धिगत होता हुआ भयानक राक्षसके रूपमें तुम सबको निगलनेके लिए आवेगा। परन्तु वह भी तुम्हारी भत्सेनासे दृष्टिके ओझल हो जावेगा । तत्पश्चात् नगरके भीतर प्रवेश करके जब तुम राजमार्गसे अपने भवनको जाओगे तब कोई अन्धी स्त्री महलके उपरिम भागसे बालकके मलको पृथ्वीपर फेकेगी और वह श्रीवर्धनकुमारके सिरपर पड़ेगा । तथा अगली रातको आप लोगोंकी मातायें यह स्वप्न देखेंगी कि आप लोगोंको राक्षसने खा लिया है । बस, १.५ फश श्रीवर्धमानाक्ष्यो । २. श त्रिद्वाशदन्ये । ३. व प्रधानादिपुत्राः । ४. ब सर्वेप्येकत्रैव यांति । ५. ब फ लालिता। ६. श पापाडौं । ७. फ बाणानि यदा । ८.ज स्पटभिश स्फाटिभि । ९ ब भवद्दर्शनेना । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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