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________________ : ५-५, ३८] ५. उपवासफलम् ५ २२५ रथो बालानां तपोविधानं वृद्धत्वे तपोऽतिचारं निश्चाययति १५ । तरुणवृषभारूढाः क्षत्रियाः क्षत्रियाणां कुधर्मरति प्रत्याययन्ति १६ । इति श्रुत्वा संप्रविचन्द्रगुप्तः स्वपुत्रसिंहसेनाय राज्यं दत्वा निःक्रान्तः। भद्रबाहुस्वामी तत्र गत्वा बालवृद्धयतीनाह्वाययात स्म, बभाषे च तान् प्रति-अहो यो यतिरत्र स्थास्यति तस्य भङ्गो भविष्यति इति निमित्तं वदति, तस्मात्सर्वैर्दक्षिणमागन्तव्यमिति । रामिल्लाचार्यः स्थूलभद्राचार्यः स्थूलाचार्यस्त्रयोऽप्यतिसमर्थश्रावकवचनेन स्वसंधेन समं तस्थुः। श्रीभद्रबाहुादशसहस्रयतिभिर्दक्षिणं चचाल, महाटव्यां स्वाध्यायं ग्रहोतुं निशिहियापूर्वकं कांचिद् गुहां विवेश । तत्रात्रैव निषोत्याकाशवाचं शुश्राव । ततो निजमल्पायुर्विबुध्य स्वशिष्यमेकादशाङ्गधारिणं विशाखाचार्य संघाधारं कृत्वा तेन संघं विससर्ज । संप्रति चन्द्रगुप्तःप्रस्थाप्यमानोऽपि द्वादश वर्षाणि गुरुपादावाराधनीयावित्यागमथुतेर्न गतोऽन्ये गताः। स्वामी संन्यासं जमाहाराधनामाराधयन् तस्थौ। संप्रति-चन्द्रगुप्तो मुनिरुपवासं कुर्वन् तत्र तस्थौ। तदा स्वामिना भणितो हे मुनेऽस्मदर्शने कान्तारचर्यामा!ऽस्ति । ततस्त्वं कतिपयपादपान्तिकं चर्यार्थ याहि । गुरुवचनमनुल्लङ्घनीयमन्यत्रायुक्तादिति छठे भागको कर(टैक्स)के रूपमें ग्रहण किया करते थे वे अब उक्त नियमका उलंघन करके इच्छानुसार करको ग्रहण किया करेंगे । (१५) जवान बैलोंसे युक्त रथ यह बतलाता है कि अब बालक तपका अनुष्ठान करेंगे और वृद्धावस्थामें उस तपको दूषित करेंगे । (१६) जवान बैलोंके उपर चढ़े हुए क्षत्रियोंको देखकर यह निश्चय होता है कि अब क्षत्रिय जन कुधर्मसे अनुराग करेंगे । इस प्रकार उन स्वप्नोंके फलको सुनकर संप्रति चन्द्रगुप्तने अपने पुत्र सिंहसेनके लिए राज्य देकर दीक्षा ग्रहण कर ली। ___ भद्रबाहु स्वामीने उद्यानमें पहुँचकर बाल व वृद्ध सब मुनियोंको बुलाया और कहा कि जो मुनि यहाँ रहेगा उसका तप नष्ट होगा, यह निमित्तज्ञानसे निश्चित है । इसलिए हम सब दक्षिणकी ओर चलें। उस समय रामिल्लाचार्य, स्थूलभद्राचार्य और स्थूलाचार्य ये तीन आचार्य किसी समर्थ श्रावकका वचन पाकर अपने-अपने संघके साथ वहींपर रहे । परन्तु श्रीभद्रबाहु आचार्य बारह हजार मुनियों के साथ दक्षिणकी ओर चले गये । वे वहाँ स्वाध्यायको सम्पन्न करनेके लिए एक महावनके भीतर निशीथिका (स्वाध्याय भूमि) पूर्वक किसी गुफामें प्रविष्ट हुए । वहाँ उन्हें 'यहीं पर ठहरो' यह आकाशवाणी सुनाई दी। इससे भद्रबाहुने यह निश्चय किया कि अब मेरी आयु बहुत थोड़ी शेष रही है। तब उन्होंने ग्यारह अंगोंके धारक अपने विशाखाचार्य नामक शिष्यको संघका नायक बनाकर उसके साथ संघको आगे भेज दिया। उस संघके साथ वे संप्रति चन्द्रगुप्तको भी भेजना चाहते थे। परन्तु उसने यह आगमवाक्य सुन रक्खा था कि बारह वर्ष तक गुरुके चरणोंकी सेवा करनी चाहिए । इसलिए एक वही नहीं गया, शेष सब चले गये । उधर भद्रबाहुने संन्यास ग्रहण कर लिया। तब वे आराधनाओंकी आराधना करते हुए स्थित रहे । संप्रति चन्द्रगुप्त उस समय उपवास करता हुआ उनके पासमें स्थित था। उस समय भद्रबाहु स्वामीने संप्रति चन्द्रगुप्तसे कहा कि हे मुने ! हमारे दर्शनमें--जैनागममें -कान्तार चर्याका मार्ग है-वनमें आहार ग्रहण करनेका विधान है। इसलिए तुम कुछ वृक्षों के पास तक चर्या के लिए जाओ। यदि वह अयोग्य नहीं १. बनां तपो विद्धि वृद्धे व्रतातिचारं । २. फ काचिद्गुहायां श काचिद्गुहां । ३. ब- प्रतिपाठोऽयम् । श मार्गेऽस्ति । ४. ब मलंघनीय । २९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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