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________________ : ५-४, ३७ ] ५. उपवासफलम् ३-४ २०१ भेरीनादपुरःसरं संनह्य रणावनौ तस्थुः । ततोऽशोकमघवादयोऽपि व्यूह-प्रतिव्यूहक्रमेण तस्थुः । रोहिणी जिनालये मन्निमित्तं पितभोंमध्ये कस्यचिन्मरणं भवति चेदाहारशरीरनिवृत्तिरिति संन्यासेन तस्थौ। इत' उभयोबलयोर्महायुद्धे प्रवृत्ते बहुषु मृतेषु वृहद्वेलायां महेन्द्रबलं नष्टुं लग्नम् । स्वबलभङ्गं दृष्ट्वा महेन्द्रः स्वयं युयुधे । तच्छस्त्रमुखेनावर्तमान स्ववलं वीक्ष्य अशोकेन स्वीकृतो महेन्द्रस्तत उभौ त्रिलोकचमत्कारि युद्धं चक्रतुः । वृहद्वेलायां महेन्द्रोऽपससार । ततश्चोलपाण्डयचेरमादिभिर्वेष्टितोऽशोकस्तदा रोहिणीभ्रातृश्रीपालादिभिरपसारिताश्चोलादयस्ततः पुनमहेन्द्रोऽवृणीत श्रोपालादीन् , महायुद्धे तेऽपसारिता महेन्द्रेण । पुनरशोकस्तमवृणोत् महायुद्धे, महेन्द्रस्य च्छत्रध्वजौ चिच्छेद सारथिनं च जघान, हे महेन्द्र स्वशिरः पतद्रत रक्षति ब्रुवन् तस्य कण्ठाय बाणं मुमोच । स तत्कण्ठे लग्नस्ततो मूच्र्छया पपात महेन्द्रस्तच्छिरो गृहणन् अशोको मघवता निवारितः। उन्मूच्छितो महेन्द्रो महामतिना शत्रोः स्वशिरो मा देहीत्यपसारितः। ततो जयदुन्दुभिनादं जयपताकोद्भवनं च चकार मघवा । तद्विपक्षभूतेषु केचिद्दीक्षां बभ्रुः, केचित्स्वदेशं ययुः । इतोऽशोकरोहिण्यो उस दूतको वापिस भेज दिया। उसने जाकर महेन्द्र आदिसे अशोकके उत्तरको ज्यों का-त्यों कह दिया । तब वे युद्धकी भेरीको दिलाते हुए सुसज्जित होकर युद्ध भूमिमें जा पहुँचे। तत्पश्चात् अशोक और मघवा आदि भी व्यूह और प्रतिव्यके कमसे रणभूमिमें स्थित हो गये । उधर रोहिणी, मेरे निमित्तसे युद्धमें यदि पिता और पतिमें-से किसीका मरण होता है तो मैं आहार और शरीरसे मोह छोड़ती हूँ, इस प्रकारके संन्यासके साथ मन्दिरमें जाकर स्थित हो गई। उन दोनों सेनाओंमें घोर युद्ध प्रारम्भ होनेपर बहुत-से सैनिक मारे गये । इस प्रकार बहुत समय बीतनेपर महेन्द्रकी सेना भागने लगी। तब अपनी सेनाको भागते हुए देखकर महेन्द्र स्वयं युद्धमें प्रवृत्त हुआ। उसके शस्त्रोंके प्रहारसे अपनी सेनाको भागती हुई देखकर अशोकने स्वयं महेन्द्रका सामना किया। तब उन दोनों में तीनों लोकोंको आश्चर्यान्वित करनेवाला युद्ध हुआ । इस प्रकार बहुत समय बीतनेपर महेन्द्र भाग गया। तब चोल, पाण्ड्य और चेरम आदि राजाओंने उस अशोकको घेर लिया। यह देखकर रोहिणीके भाई श्रीपाल आदिने उक्त चोल आदि राजाओंको पीछे हटा दिया । तब उन श्रीपाल आदिका सामना महेन्द्रने फिरसे किया और उनके साथ घोर युद्ध करके उसने उन्हें पीछे हटा दिया। यह देख अशोकने फिरसे महेन्द्रका सामना करके महायुद्ध में उसके छत्र और ध्वजाको नष्ट कर दिया व सारथीको मार डाला। तत्पश्चात् हे महेन्द्र ! अब तू अपने गिरते हुए शिरकी रक्षा कर, यह कहते हुए अशोकने उसके कण्ठको लक्ष्य करके बाण छोड़ दिया । वह जाकर महेन्द्र के कण्ठमें लगा। इससे वह मूर्छित होकर गिर पड़ा। उस समय अशोकने उसके शिरको ग्रहण करना चाहा । परन्तु मघवाने उसे ऐसा करनेसे रोक दिया । जब महेन्द्रकी मूर्छा दूर हुई तब महामति मन्त्रीने समझाया कि अब तुम शत्रुके लिए अपना शिर मत दो। इस प्रकार समझाकर उसने महेन्द्रको युद्धसे विमुख किया। तब मघवाने जयभेरीकी ध्वनिके साथ विजयपताका फहरा दी । उसके शत्रुओंमेंसे कितनोंने दीक्षा धारण कर ली और कितने ही अपने देशको वापिस चले गये। इधर अशोक और रोहिणीका १. प फ श इति । २. प वहुमित्रेसु श बहुमतेपु । ३ प फ श वृणीतं ब ब्रणोत । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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