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________________ : ५-४, ३७ ] ५. उपवासफलम् ३-४ १९९ भिषेक पूजादिकं विधायागत्य आस्थानस्थस्य पितुर्गन्धोदकादिकमदत्त । पितापृच्छत् हे पुत्रि, किमिति म्लानवदना शृङ्गाररहिता च । तयोक्तं ह्यः' उपोषितेति । तर्हि गच्छ पारणार्थमिति तां प्रस्थाप्य तद्यौवनश्रियं सलजभावेन गच्छन्त्या लुलोके । ततः स्वमन्त्रिणोऽप्राक्षीत् सुतायाः को वरो योग्य इति । तत्र मतिसागरो ब्रूते सिन्धुदेशाधिपतिर्भूपालो योग्योऽप्रतिमरूपत्वात् । श्रुतसागरोऽवदत् पल्लवाधिपतिरकीर्तिः सर्वगुणयुक्तवान् । विमलबुद्धिरुवाच सुराष्ट्र शो जितशत्रुरनुपमगुणाधार इति । स एव योग्यः । सुमतिरुक्तवान् स्वयंवरविधिः श्रेयान् , स एव कर्तव्य इति । तत्सर्वैरभ्युपगतम् । ततः स्वयंवरशालां विधाय सर्वान् क्षत्रियानाजह्वौ मघवा । तेऽपि समागत्य यथोचितासने उपविविशुः । सातिशयशृङ्गारान्चिता रोहिणी धात्रिकायुक्ता रथमारुह्य स्वयंवरशालायां विवेश । तत्र धात्रिका क्षत्रियान् दर्शयितुमारभत । हे पुत्रि, सुकोशलाधिपमहामण्डलेश्वरश्रीवर्मणः सुतोऽयं महेन्द्रः, अयं वङ्गाधिपोऽङ्गदः, अयं डाहलाधिपो वज्रबाहु इत्यादिनानाक्षत्रियदर्शनानन्तरमेकस्मिन् प्रदेशे दिव्यासनस्थमशोककुमारमभीयं धात्रिकयोच्यते हे पुत्रि, हस्तिनापुरेशकुरुवंशोद्भववीतशोकविमलयोः पुत्रोऽयमशोकः सर्वगुणेश इति । ततस्तया माला तस्य निक्षिप्ता । तदा महेन्द्रस्य उसने वहाँ जिन भावान्का अभिषेक और पूजन आदि की। पश्चात् जिनालयसे वापिस आकर उसने सभा भवनमें बैठे हुए अपने पिताके लिए गन्धोदक आदि दिया। तब उसके पिताने पूछा कि हे पुत्री ! तेरा मुख मुरझाया हुआ क्यों है तथा तूने कुछ शृंगार भी क्यों नहीं किया है ? उसने उत्तर दिया कि मेरा कलका उपवास था. इसलिए. शृङ्गार नहीं किया है। इसपर पिताने कहा कि तो फिर जाकर पारणा कर । इस प्रकार उसे भवनके भीतर भेजते हुए राजाने लज्जाके साथ जाती हुई उसके यौवनकी शोभाको देखकर मन्त्रियोंसे पूछा कि इसके लिए कौन-सा वर योग्य होगा ? तब उनमें से मतिसागर नामका मन्त्री बोला कि सिन्धु देशका राजा भूपाल इसके लिए योग्य होगा, क्योंकि उसकी सुन्दरता असाधारण है। दूसरा श्रुतसागर मन्त्री बोला कि पल्लव देशका राजा अर्ककीर्ति सब ही गुणोंसे सम्पन्न है, अतएव वह इस पुत्रीके लिए योग्य वर है। विमलबुद्धि ने कहा कि सुराष्ट्र देशका स्वामी जिनशत्रु अनुपम गुणोंका धारक है, इसलिए वही इसके लिए योग्य वर दिखता है । अन्तमें सुमति मन्त्री बोला कि पुत्रीके लिए योग्य वर देखनेके लिए स्वयंवर की विधि ठीक प्रतीत होती है, अतएव उसे ही करना चाहिए । सुमतिकी इस योग्य सम्मतिको उन सभीने स्वीकार कर लिया। तब इस स्वयंवर विधिको सम्पन्न करने के लिए स्वयंवरशालाका निर्माण कराकर मघवा राजाने समस्त राजाओंके पास आमन्त्रण भेज दिया । तदनुसार वे राजा आकर स्वयंवरशालामें यथायोग्य आसनोंपर बैठ गये। उस समय अनुपम वस्त्राभूषणोंसे सुसज्जित रोहिणी धायके साथ रथपर चढ़कर आयी और स्वयंवरशालाके भीतर प्रविष्ट हुई। वहाँपर धायने राजा भोंका परिचय कराते हुए रोहिणीसे कहा कि हे पुत्री ! यह सुकोशल देशके स्वामी महामण्डलेश्वर श्रीवर्माका पुत्र महेन्द्र है, यह वंग देशका राजा अंगद है, यह डाहल देशका स्वामी वज्रबाहु है, इत्यादि अनेक राजाओंका परिचय कराती हुई वह धाय एक स्थानपर दिव्य आसनके ऊपर बैठे हुए अशोककुमारको देखकर बोली कि हे पुत्री ! यह हस्तिनापुरके १. व अद्य । २. श प्र स्थाप्ययोवनश्रियं । ३. ब रो विचिन्त्याभावत सिंधु । ४. श युक्तवान् । ५. ब गुणाधारों स । ६. ब स्वयंवरयिधिः स कर्तव्य । ७. ज प फ श डाहाल । ८. बमवीक्ष्य। ९. श सर्वगणेशेति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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