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________________ १९० पुण्यात्रवकथाकोशम् [५-२, ३५: भवति तथा कुरु' इति । स तत्र गत्वा तं निद्रितं द्रष्टवा भविष्यदत्तो यत्र पश्यति तत्रेदं वाक्यं लिखित्वा जगाम। किं तद्वाक्यम् । भविष्यदत्त एतत्पुरपयरिंजय-चन्द्राननयोरुत्पन्नां भविष्यानुरूपां एकामेव राजभवने राक्षसेन रक्षितां परिणीय द्वादशवर्षेः वन्धूनां मिलिष्यतीति । एतद् दृष्ट्वा भविष्यदत्तो राजभवनं जगाम । गवेषयन्नपवरकान्तर्गवाक्षजालेन कन्यामपश्यत् । भविष्यानुरूपे द्वारमुद्घाटयेत्युक्ते सोद्घाटयाञ्चकार । तदनु त्वं क इत्युक्ते सोs. वोचत्कश्चिद्वैश्यपुत्रोऽहं मार्गे गच्छन्नागत इति । तया तन्मजनभोजनाद्यनन्तरमवादि, हे युवनत्रत्य राजादिजनान् कश्चिद्राक्षसो मारयित्वा मां रक्षति स्म । इमानि विचित्ररूपाणि मम प्रेषणकरणे समय॑ गतः । इमानि मे भोजनादिना समाधानं कुर्वन्ति । सो षण्मासेषु षण्मासेष्वागत्यावलोक्य गच्छत्यग्रे सप्तमदिने प्रागमिष्यति । यावत्स नागच्छति तावद् गच्छेति । स तत्प्रतापं पश्यामि, न गच्छामीत्युक्त्वाऽस्थात् । सापि स्वकन्याव्रतेन तस्थौ । आगतो राक्षसस्तं विलोक्य तत्पादयोर्लग्नः। कन्यामदत्त त्वभृत्योऽहं स्मरणे आगच्छामीति भणित्वा स्वर्लोकं गतः । भविष्यदत्तभविष्यानुरूपे तत्र सुखेन तस्थतुः। इतः कमलश्रीः सुतं स्मृत्वा दुःखिनी जो दुःखविनाशार्थ सुव्रतार्जिकासकाशे श्री दत्त सो रहा था। तब उसने जहाँपरभविष्यदत्त की दृष्टि पहुँच सकती थी वहाँ ( खित्तिके ऊपर ) यह वाक्य लिख दिया-भविष्यदत्त इस पुरके स्वामी अरिंजय और चन्द्राननाकी पुत्री भविष्यानुरूपाके साथ, जो एक मात्र इस राजभवन में राक्षसके द्वारा रक्षित है, अपना विवाह करके बारह वर्षों में जाकर अपने कुटुम्बी जनोंसे मिलेगा । यह लिखकर वह वापिस चला गया । इस लेखको देखकर भविष्यदत्त राजभवनमें गया। वहाँ खोजते हुए उसने शयनागारके झरोखेसे जब उस कन्याको देखा तब वह बोला कि हे भविप्यानुरूपे ! द्वारको खोलो। इसपर उसने द्वारको खोल दिया । तत्पश्चात् कन्याने उससे पूछा कि तुम कौन हो ? उसने उत्तरमें कहा कि मैं एक वैश्य पुत्र हूँ और मार्गमें जाते हुए यहाँ आया हूँ। तत्पश्चात् वह भविष्यदत्तको स्नान व भोजन आदि कराकर उससे बोली कि किसी राक्षसने यहाँके राजा आदि समस्त जनोंको मारकर केवल मेरी रक्षा की है। वह मेरी सेवाके लिए इन विचित्र रूपोंको देकर चला गया है। ये रूप भोजनादिके द्वारा मेरा समाधान करते हैं। वह छह छह मासमें यहाँ आकर मुझे देख जाता है । अब आगे वह सातवें दिनमें यहाँ आवेगा। वह जबतक यहाँ नहीं आता है तब तक तुम यहाँसे चले जाओ। यह सुनकर उसने कहा कि मैं नहीं जाता हूँ, उसके प्रतापको देखना चाहता हूँ। यह कहकर वह वहींपर ठहर गया । भविष्यानरूपा भी अपने कन्यावतके साथ-अपने शीलको सुरक्षित रखती हुई-स्थित रही। समयानुसार वह राक्षस वहाँ आया और भविष्यदत्तको देखकर उसके पैरोंमें पड़ गया। तत्पश्चात् वह उसे उक्त कन्याको देकर बोला कि मैं आपका दास हूँ, जब आप मेरा स्मरण करेंगे तब मैं आया करूँगा; यह कहकर वह स्वर्गलोकको चला गया। भविष्यदत्त और भविप्यानुरूपा दोनों सुखपूर्वक वहींपर स्थित रहे । उधर भविष्यदत्तकी माता कमलश्री पुत्रका स्मरण करके बहुत दुखी हुई। उसने इस १.प कूवन्ति शकूविते । २. जब गत्वा भविष्यदत्तो श गत्वा तं निनिद्रितं द्रष्टा भविष्यदत्तो । ३. श पश्यति तत्र भित्तो तत्रेदम् । ४. ज प ब वर्षे बन्धूनाम् । ५. प फ श°द्यनन्तरं सावादि । ६. ज युवस्तअत्य, फ युवन्नत्र । ७. श इमानि चित्र । ८.फ प्रेक्षण । ९. श सप्तदिने । १०. श त्वदर्भहम । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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