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________________ : ५-१, ३४] ५. उपवासफलम् १ १८१ स्यान्तं जगाम । नागकुमाररूपं पटे विलिख्यानीय तस्या दर्शितवान् । सा पासक्ता जाता। ततः पुनर्गत्वा व्यालं पुरस्कृत्य प्रभु दृष्टवान् । कथित आत्मवृत्तो भृत्यो बभूव । ततःप्रतापंधरः उजयिनीमियाय, मेनकी परिणीतवान् , तत्र सुखेनास्थात् । एकदा महाव्यालः श्रीमतीवार्ता विज्ञप्तवान् । कुमारस्तत्र जगाम । तां तथा रजयित्वा ववार । तत्रैव सुखेन यावदास्ते तावत् कश्चिद्वणिग्राजास्थानमाययौ । तमपृच्छत्कुमारः- कि क्वापि त्वया कौतुकं दृष्टं किंचिदस्ति न वा। स ाह-समुद्राभ्यन्तरे तोयावलीद्वीपे सुवर्णचैत्यालयाग्रे मध्याह्ने प्रतिदिनं लकुटधरपुरुषरक्षिताः पञ्चशतकन्याः आक्रोशन्ति, कारणं न बुध्यते । ततो विद्याप्रभावेन चतुर्भिः कोटिभटैः तत्र ययौ । जिनमभ्यर्च्य स्तुत्वोपविष्टः। ततस्तासामाकोशमवधाय ता पाहूय पृष्टवान् 'किमित्याक्रोशते' इति । तत्र धरणिसुन्दरी जूते स्मास्मिन् द्वोपे धरणितिलकपुरेशस्ति [स्त्रिरक्षो नामविद्याधरस्तत्पुत्र्यो वयं पञ्चशतानि । अस्मत्पितु गिनेयो वायुवेगो रूपदरिद्रोऽस्मानस्मत्पितुः पार्वे याचित्वाप्राप्य ततो राक्षसीं विद्यामसाधीत्। तत्प्रभावेनास्मत्पितरं युद्धेऽवधीदस्मद्भातरौ रक्षमहारक्षौ भूमिगृहे पटपर नागकुमारके रूपको लिखा और फिर उसे लाकर मेनकीको दिखलाया । उसे देखकर मेनकी नागकुमारके विषयमें आसक्त हो गई । तत्पश्चात् महाव्याल फिरसे हस्तिनापुर गया। वहाँ वह व्यालके साथ नागकुमारसे मिला और अपना वृतान्त सुनाकर उसका सेवक हो गया । तब प्रतापंधरने उज्जनियी जाकर मेनकीके साथ विवाह कर लिया। वह वहाँ सुखसे स्थित हुआ । एक समय व्यालने नागकुमारसे श्रीमतीकी प्रतिज्ञाका वृत्तान्त कहा। तब नागकुमारने वहाँ जाकर श्रीमतीको उसकी प्रतिज्ञाके अनुसार मृदंगवादनसे अनुरंजित किया और उसके साथ विवाह कर लिया। तत्पश्चात् वह वहाँ सुखपूर्वक कालयापन कर ही रहा था कि इतनेमें एक वैश्यों का स्वामी राजाके सभाभवनमें उपस्थित हुआ। उससे नागकुमारने पूछा कि क्या तुमने कहींपर कोई कौतुक देखा है या नहीं ? उसने उत्तरमें कहा कि समुद्रके भीतर तोयावली द्वीपमें एक सुवर्णमय चैत्यालय है । उसके आगे प्रतिदिन मध्याह्नके समयमें दण्डधारी पुरुषोंसे रक्षित पाँच सौ कन्यायें करुण आक्रन्दन करती हैं । वे इस प्रकार आक्रन्दन क्यों करती हैं, यह मैं नहीं जानता हूँ। यह सुनकर नागकुमार विद्याके प्रभावसे चार कोटिभटोंके साथ वहाँ गया। वह वहाँ पहुँच कर जिनेन्द्रकी पूजा और स्तुति करके बैठा ही था कि इतनेमें उसे उन कन्याओंका आक्रन्दन सुनाई दिया । तब उसने उनको बुलाकर पूछा कि तुम इस प्रकारसे आक्रन्दन क्यों करती हो ? इसपर उनमेंसे धरणिसुन्दरी बोली- इस द्वीपके भीतर धरणितिलक नामका नगर है। वहाँ त्रिरक्ष नामका विद्याधर रहता है। हम सब उसकी पाँच सौ पुत्रियाँ हैं। हमारे पिताके वायुवेग नामका भानजा है जो अतिशय कुरूप है । उसने पिता के पास जाकर हम सबको माँगा था। परन्तु पिताने उसके लिए हमें देना स्वीकार नहीं किया। तब उसने राक्षसी विद्याको सिद्ध करके उसके प्रभावसे युद्ध में हमारे पिताको मार डाला तथा रक्ष और महारक्ष नामके हमारे दो भाइयोंको तलघर में रख दिया है। वह हमारे १. ब- प्रतिपाठोऽयम् । श पटे लेष्यानीय । २. ब विज्ञाप्तवान । ३. पक्रोशतमिति । ४. ब-प्रतिपाठोऽयम् । पपुरे तरक्षो श पुरे रक्षो। ५. फ श दरिद्रो नोऽस्मा। ६. पनस्मारिपतुः । ७. ब विद्या मरात्सीत् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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