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________________ १६४ पुण्यास्रवकथाकोशम् [५-१, ३४: गिर्यभिधं हस्तिनं वशीकरिष्यते दुष्टाश्वं च इति श्रुत्वा हृष्टा सात्मगृहं जगाम । इतो नृपो जलक्रीडावसरे तामपश्यन् विषण्णस्तगृहं शीघ्रमागतः पृष्टवांश्च किमिति नागतासीति । तया मुनिनोदितं सर्वे कथितम् । तदा सोऽपि जहर्ष । ततस्तस्याः कतिपयदिननन्दनो जनि। स च प्रतापंधरसंशया वर्धितुं लग्नः । तं गृहीत्वैकदा माता तं जिनालयं गता, तथा स कपाट उद्घाटितः। बालं बहिर्निधाय वसतिकान्तं प्रविष्टा सा। सर्वो जनोऽपि जिनदर्शने व्यग्रोऽभूत्तदा बालो रङ्गन् गत्वा नागवाप्यामपतत् । तमपश्यन्त्या धात्रिकायाः कोलाहलमाकाम्बिका तत्र पतितं तत्रत्यदेवैर्नागरूपेणात्मफणासु जलादुपरि धृतं वीक्ष्य स्वयमपि 'हा पुत्र' इति भणित्वा तत्र पपात । तदागाधमपि जलं तत्पुण्येन तस्या जानुदध्नमबोभवीत् । तदाङ्गरक्षादिकृतकलकलमाकर्ण्य तत्र गजागमत् । सपुत्रां तां तथा लुलोके जहर्ष च । ततस्तमाकर्षध्वं [माकृष्य] जिनाभ्यर्चनं चक्रे अनु स्वसद्म ययौ । ततः सुतं नागकुमाराभिधं कृत्वा सुखेनास्थात् । सकलकलाकुशलोऽभूत्सः'। एकदा राजास्थानं पञ्चसुगन्धिनीनामवेश्या समागत्य भूपं विज्ञापयति स्म देव, मे सुते द्वे किंनरी मनोहरी च वीणावाद्यमदगर्विते । नागकुमारस्यादेशं देहि तयोर्वाद्यं परीक्षितुम् । सुनकर पृथ्वी रानी हर्षित होती हुई अपने भवनमें वापिस चली गई। इधर राजा जलक्रीड़ाके समय पृथ्वीको न देखकर खिन्न होता हुआ उसके भवनमें गया। वहाँ शीघ्र जाकर उसने पृथ्वीसे उद्यानमें न जानेका कारण पूछा। तब उसने मुनिके द्वारा कहे हुए उस सब वृत्तान्तको राजासे कह दिया । उसे सुनकर राजाको भी बहुत हर्ष हुआ। तत्पश्चात् कुछ दिनोंके बीतने पर उसके पुत्र उत्पन्न हुआ। उसका नाम प्रतापन्धर रक्खा गया । वह क्रमसे वृद्धिको प्राप्त होने लगा। एक दिन उसकी माता उसे लेकर उक्त जिनालयको गई । . वहाँ मुनिके कथनानुसार उस बालकके अंगूठेके स्पर्शसे जिनालयके वे बन्द किवाड़ खुल गये । पृथ्वी उस बालकको बाहर छोड़कर जिनालयके भीतर गई। उस समय सब ही जन जिनदर्शनमें लीन थे। तब वह बालक घुटनोंके सहारे जाकर नागवापीमें गिर गया। तब उसे न देखकर उसकी धाय कोलाहल करने लगी। उसे सुनकर उसकी माता पृथ्वी बाहर आयी। उसने देखा कि पुत्र वावड़ीमें गिर गया है । उसे सर्पोके रूपमें स्थित बावड़ीके देवोंने जलके ऊपर अपने फणोंसे धारण कर लिया था। तब वह 'हा पुत्र' कहकर स्वयं भी उस बावड़ीमें कूद पड़ी। उस समय उसके पुण्यके प्रभावसे उस बावड़ीका अथाह जल भी उसके घुटने प्रमाण हो गया। उस समय अंगरक्षक आदिकों के कोलाहलको सुनकर राजा भी वहाँ जा पहुँचा। उसे उस अवस्थामें पृथ्वीको पुत्रके साथ देखकर बहुत हर्ष हुआ। पश्चात् उसने माताके साथ पुत्रको बावड़ीसे बाहर निकलवाकर. जिनेन्द्रकी पूजा की। फिर वह राजप्रासादमें वापिस चला गया। तत्पश्चात् वह पुत्रका नागकुमार नाम रखकर सुखपूर्वक स्थित हुआ । वह पुत्र भी समस्त कलाओं में प्रवीण हो गया । एक समय पंचसुगन्धिनी नामकी किसी वेश्याने राजसभामें आकर राजासे प्रार्थना की कि हे देव ! मेरे किंनरी और मनोहरी नामकी दो पुत्रियाँ हैं। उन्हें वीणा बजानेका बहुत अभिमान है। आप उनके वीणावादनकी परीक्षा करनेके लिये नागकुमारको आज्ञा दीजिये । १. ब वशीकरिष्यति । २. ब-प्रतिपाठोऽयम् । शस्तद्गहं जगाम शीघ्र। ३. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श ततस्तया कतिपयदिनानि उल्लंघ्य नन्दनो। ४. ब 'पि' नास्ति। ५. ब रंगत् । ६. श 'तत्र' नास्ति । ७. फ 'कृत' नास्ति । ८. फ स्वपुत्रं श सुपुत्रां। ९. प माकर्षध्वः ब माकर्षज्य । १०. ब चक्रे तु स्वसद्म । ११. ब 'सः' नास्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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