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________________ : ५-१, ३४ ] ५. उपवासफलम् १ संचिन्त्य रुष्टेन राज्ञा द्वावपि गाढं बन्धयित्वा सिसुमारदहे निक्षिप्तौ। तत्र मातङ्गस्य प्राणात्ययेऽप्यहिंसाणुव्रतमपरित्यजतो व्रतमाहात्म्याजलदेवतया जलमध्ये सिंहासनमणिमण्डपिकादुन्दुभिसाधुकारादि प्रातिहार्य कृतम् । महाबलराजेने चैतदाकर्ण्य भीतेन पूजयित्वा निजच्छत्रंतले स्नापयित्वा संस्पृश्यो विशिष्टः कृत इति । कुमारः सिसुमारेण भक्षितों दुर्गतिं ययौ । एवं चाण्डालोऽपि शीलेन सुरपूज्योऽभूदन्यः किं न स्यादिति ॥८|| त्रिदशभवने सौख्यं भुक्त्वा नरोत्तमजातिजं भजति तदलं भव्यो भक्त्या पठेदतुलाष्टकम् । नृसुरविभुभिः पूज्यो भूत्वा सुशीलफलाख्यकं स खलु लभते मोक्षस्थानं सदात्मजसौख्यकम् ॥ इति पुरयास्रवाभिधानग्रन्थे केशवनन्दिदिव्यमुनिशिष्य-रामचन्द्र-मुमुक्षविरचिते शीलफलव्यावर्णनो नामाष्टकम् ॥४॥ [३४ ] भुवनपतिसुखानां कारणं लोकपूज्यं खलु वृजिनविनाशं शोषकं चेन्द्रियाणाम् । इसीलिये मैं आज जीववध नहीं कर रहा हूँ। अब आप जो उचित समझें करें । चाण्डालके इस कथनको सुनकर राजाने विचार किया कि भला चाण्डालके भी व्रत हो सकता है। बस यही सोचकर उसका क्रोध भड़क उठा। तब उसने उन दोनोंको ही बंधवाकर शिशुमारद्रह (हिंसक जल-जन्तुओंसे व्याप्त तालार)में पटकवा दिया। परन्तु उस चाण्डालने चूँकि मरणके सन्मुख होनेपर भी अपने ग्रहण किये हुए अहिंसाणुव्रतको नहीं छोड़ा था इसीलिये उस व्रतके प्रभावसे जलदेवताने उसे जलके मध्यमें सिंहासन देकर मणिमय मण्डप, दुन्दुभि और साधुकार ( साधु कृतं साधु कृतम्, यह शब्द ) आदि प्रातिहार्य किये। इस घटनाको सुनकर महाबल राजा बहुत भयभीत हुआ। तब उसने उक्त चाण्डालकी पूजा करके उसका अपने छत्रके नीचे स्नान कराया और फिर उसे विशिष्ट स्पर्शके योग्य घोषित किया । वह कुमार शिशुमार ( हिंस्र जलजन्तु ) का ग्रास बनकर दुर्गतिको प्राप्त हुआ। इस प्रकार चाण्डाल भी जब शीलके प्रभावसे देवसे पूजित हुआ है तब दूसरा क्या देवोंसे पूजित नहीं होगा ? अवश्य होगा ॥८॥ जो भव्य जीव भक्तिसे इस अनुपम आठ कथामय शीलके प्रकरणको पढ़ता है वह स्वर्गके सुखको भोगकर मनुष्यों में श्रेष्ठ चक्रवर्ती आदिके भी सुखको भोगता है। तथा अन्तमें चक्रवर्तियों और इन्द्रोंका भी पूज्य होकर उत्तम शीलके फलभूत उस मोक्षस्थानको भी प्राप्त कर लेता है जहाँपर कि निरन्तर आत्मीक अनन्त सुखका अनुभव किया करता है । इस प्रकार केशवनन्दी दिव्य मुनिके शिष्य रामचन्द्र मुमुक्ष द्वारा विरचित पुण्यास्रव नामक कथाकोश ग्रन्थमें शील के फलका वर्णन करनेवाला अष्टक समाप्त हुआ ||४|| जो उपवास तीनों लोकोंके अधिपतियों ( इन्द्र, धरणेन्द्र एवं चक्रवर्ती ) के सुखका कारण, १. ५ ब सुंसुमारद्रहे । २. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श महाबल राज्ञा। ३. ब संस्पृशो। ४. ब सुंसुमारेण भक्षतो। ५. ब भुवने । ६. फ 'कारणं' नास्ति । Jain Education Interio ponal For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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