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________________ १५८ पुण्यास्त्रक्कथाकोशम. [४-७, ३२ : जातौ परिणीता च सा । ततः पुनस्तौ बुद्धभक्तौ जाती। नोल्याः स्वैपितृगृहे गमनमपि निषिद्धमेवं वचने [वञ्चने] जाते भणितं जिनदत्तेन इयं मम न जाता, कूपादौ पतिता वा; यमेन वा नीता इति। नीली च श्वशुरगृहे भर्तुर्बल्लमा विभिन्नगृहे जिनधर्ममनुष्ठन्ती तिष्ठति । दर्शनात् संसर्गाद्वचनात् धर्मादेवाकर्णनाद्वा कालेनेयं बुद्धभक्ता भविष्यतीति पर्यालोच्य समुद्रदत्तेन भणिता नीली पुत्रि, शानिनां वन्दकानामस्मदर्थ भोजनं देहि । ततस्तया वन्दकानामन्ध्याह्वय च तेषामेकैका प्राणहितातिमृष्टं संस्कार्य तेषामेव भोक्तुं दत्ता । तैर्भोजनं भुक्त्वाँ गच्छद्भिः पृष्टं व प्राणहिताः। तयोक्तं भवन्त एव ज्ञानेन जानन्तु यत्र ताः तिष्ठन्ति । यदि पुनर्ज्ञानं नास्ति तदा वमनं कुर्वन्तु भवतामुदरेण[मुदरे] प्राणहितास्तिष्ठन्तीति । एवं वमने कृते दृष्टानि प्राणहिताखण्डानि । ततो रुष्टः श्वशुरपक्षजनः। ततः सागरदत्तभगिन्यादिभिः कोपात्तस्या असत्या परपुरुषोद्भावना कृता। तस्यां प्रसिद्धिं गतायां नीली देवाग्रे संन्यासं गृहीत्वा कायोत्सर्गेण स्थिता दोषोत्तरें भोजनादौ प्रवृत्तिर्मम, नान्यथेति । ततः तुभितनगरदेवतयागत्य रात्री सा भणिता-हे महासति, मा प्राणत्यागमेवं कुरु । अहं राशः प्रधानानां पुरजनस्य च स्वप्नं ददामि-लग्ना यथा नगरप्रतोल्यः कीलिता महासतीवामेन (पिता-पुत्र ) कपटसें श्रावक बन गये। इस प्रकारसे सागरदत्तके साथ उस नीलीका विवाह सम्पन्न हो गया। तत्पश्चात् वे फिरसे बौद्ध हो गये। तब उन्होंने नीलीको अपने पिताके यहाँ जानेसे भी रोक दिया। इस प्रकार धोखा खानेपर जिनदत्तने विचार किया कि यदि यह मेरे यहाँ उत्पन्न नहीं होती तो अच्छा था, अथवा कुएं में गिरकर मर गई होती या यमके द्वारा ग्रहण कर ली गई होती तो भी अच्छा होता। उधर नीली ससुरके घरपर पतिकी प्रिया होकर दूसरे घरमें जिनधर्मकी उपासना करती हुई समयको बिता रही थी। यह [ भिक्षुओंके ] दर्शनसे, उनकी संगतिसे, वचनसे अथवा धर्मके सुननेसे कुछ समयमें बुद्धदेवकी भक्त (बौद्ध) हो जावेगी, ऐसा विचार करके समुद्रदत्तने उससे कहा कि हे नीली पुत्री ! हमारे लिये निमित्तज्ञानी बन्दकों (बौद्ध भिक्षुओं ) को भोजन दो । इसपर उसने बन्दकोंको निमन्त्रित करके बुलाया और उनमेंसे प्रत्येक बन्दकके एक एक जूताको महीन पीसकर उसे घृतादिसे संस्कृत करते हुए उन्हींको खिला दिया । जब वे सब भोजन करके वापिस जाने लगे तब उन्हें अपना एक एक जूता नहीं दिखा । इसके लिये उन्होंने पूछा कि हमारा एक-एक जूता कहाँ गया है ? नीलीने उत्तर दिया कि आप सब ज्ञानी हैं, अतएव आप ही अपने ज्ञानके द्वारा जान सकते हैं कि वे जूते कहाँपर हैं । और यदि आप लोगों को उसका ज्ञान नहीं है तो फिर वमन करके देख लीजिये। वे आप लोगोंके ही पेटमें स्थित हैं । इस प्रकारसे वमन करनेपर उन्हें उसमें जूतेके टुकड़े. देखने में आ गये । इससे ससुरके पक्ष के लोग नीलीके ऊपर क्रुद्ध हुए। तत्पश्चात् सागरदत्तकी बहिन. आदिने क्रोधवश उसके विषयों पर पुरुषके साथ सम्बन्ध रखनेका झूठा दोष उद्भावित किया । इस दोषके प्रसिद्ध होनेपर वह नीली देवके आगे संन्यास लेकर कायोत्सर्गसे स्थित हो गई। उस समय उसने यह देव.प्रतिमा कर..ली कि इस दोषके दूर हो जानेपर ही मैं भोजनादिमें प्रवृत्त होऊँगी, अन्यथा नहीं । इस घटनासे क्षुभित होकर रात्रिमें नगरदेवता आया और उससे बोला हे महासती ! तू इस प्रकारसे प्राणोंका त्याग न कर । मैं राजाके प्रधान पुरुषों और नगरवासी जनोंको स्वप्न देता १. फ नील्याश्च स्वपित ब नील्याश्च पितृ । २. ब कूपादौ वा पतिता । ३. ब गाद्वचनधर्मदेवा । ४. ब मस्मदर्थेन । ५.५ मष्टं संस्कार्ये शमष्टसंकार्य। ६.ब दत्वा । ७.ब कृत्वा। ८. ब दोषोत्तारे। श 'सा' नास्ति। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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