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________________ : ३-६, २३ ] १२६ तानेव कथय । कथयामि शृणु त्वम् । अत्रैव विषये मृणालपुरे राजा सुकेतुः, वैश्यः श्रीदत्तो वनिता विमला, पुत्री रतिकान्ता । विमलायाः भ्राता रतिधर्मा, जाया कनकश्रीः, पुत्रो भवदेवो दीर्घग्रीव इति उष्ट्रग्रीवापरनामाभूत् । स द्वीपान्तरं गच्छन् सन् रतिकान्ता मह्यं दातव्या, श्रन्यस्मै ददासि चेद्राजाशेति मातुलस्याज्ञां द्वादशवर्षाण्यवधिं च कृत्वागमत् । श्रवयतिक्रमेऽशोकदेव - जिनदत्तयोर्नन्दनसुकान्ताय दत्ता सा । आगतेन भवदेवेन तन्मारणार्थम् उपार्जितद्रव्येण भृत्याः कृताः । तं ज्ञात्वा दम्पती शोभानगरेशप्रजापालस्य भृत्यं शक्तिसेनं [षेणं] धन्नगाख्याटव्यां स्थानान्तरेण स्थितं सहस्रभटं शरणं प्रविष्टौ । तद्भयात्स तूष्णीं स्थितः । तस्मिन् मृते तेनाग्निं दत्त्वा मारितौ । ग्राम्यैः सोऽपि तदग्नौ क्षिप्तो ममार । तौ पुण्डरीकिण्यां कुबेरकान्तराजश्रेष्ठिगृहे पारापतौ जज्ञाते । स तत्समीपजम्बूग्रामे मार्जारोऽजनि । तौ पारापतावेकदा तद्धामं गतौ तन्मार्जारेण खादितौ । मृत्वा पक्षी हिरण्यवर्मनामा विद्याधरचक्री बभूव, पक्षिणी तदग्रमहिषी प्रभावती जाता । तदनु तपो जगृहतुः । हिरण्यवर्ममुनिः स्वगुरुणा पुण्डरीकिणीमागतः, सापि स्वक्षान्तिकया सह । शिवंकरोद्याने स्थिती समुदायौ । समार्जारो मृत्वा तदा तत्र विद्युद्वेगनामा कोट्टपालकस्य भृत्योऽभूत् । तद्वनिता वन्दितुं • श्रुतोपयोगफलम् ६ ३. सुनकर वह देव बोला कि तो उन पूर्व भवोंको ही कहिये । इसपर उसने कहा कि उन्हें कहता हूँ, सुनो । इसी देश के भीतर मृणालपुर में सुकेतु राजा राज्य करता था । वहाँ एक श्रीदत्त नामका वैश्य था । इसकी पत्नीका नाम विमला था । इन दोनोंके एक रतिकान्ता नामकी पुत्री थी । विमला एक भाई था, जिसका नाम रतिधर्मा था । रतिधर्माकी पत्नीका नाम कनकश्री था । उसके एक भवदेव नामका पुत्र था । उसकी ग्रीवा लम्बी थी । इसीलिये उसका दूसरा नाम उष्ट्रग्रीव भी प्रसिद्ध था । द्वीपान्तरको जाते हुए उसने अपने मामा से कहा कि रतिकान्ताको मेरे लिये देना । यदि तुम उसे किसी दूसरेके लिए दोगे तो राजाज्ञा के अनुसार दण्डको भोगना पड़ेगा । इस प्रकार मामासे कहकर और उसके लिये बारह वर्षकी मर्यादा करके वह द्वीपान्तरको चला गया। उसकी वह बारह वर्षकी अवधि समाप्त हो गई, परन्तु वह वापिस नहीं आया । तब वह कन्या अशोकदेव और जिनदत्ताके पुत्र सुकान्तके लिये दे दी गई । जब वह भवदेव वापस आया तब उसने सुकान्तको मार डालनेके लिये कमाये हुए द्रव्यको देकर कुछ भृत्योंको नियुक्त किया । इस बातको जान करके वे दोनों ( सुकान्त और रतिकान्ता ) शोभानगरके राजा प्रजापालके सेवक ( सामन्त ) शक्तिसेन नामक सहस्रभटकी शरणमें पहुँचे । उस समय वह सहस्रभट धन्नगा नामकी अटवीमें पड़ाव डालकर स्थित था। उसके भयसे वह भवदेव तब शान्त रहा । तत्पश्चात् भवदेवने उस सहस्रभटके मर जानेपर उन्हें आगमें जलाकर मार डाला । इधर ग्रामवासियोंने उसको भी उसी आगमें फेंक दिया। इससे वह भी मर गया । सुकान्त और रतिकान्ता ये दोनों मरकर पुण्डरीकिणी नगरीमें कुबेरकान्त नामक राजसेठके घरपर कबूतर और कबूतरी हुए थे और वह भवदेव मरकर उसके समीप जम्बू ग्राममें बिलाव हुआ था । वे कबूतर और कबूतरी एक दिन उसके स्थान (जम्बू ग्राम) पर गये, वहाँ उन्हें उस बिलावने खा लिया। इस प्रकारसे मरकर वह कबूतर तो हिरण्यवर्मा नामका विद्याधरोंका चक्रवर्ती हुआ और वह कबूतरी उसकी प्रभावती नामकी पटरानी हुई। कुछ समय के पश्चात् उन दोनोंने दीक्षा ग्रहण कर ली । एक बार हिरण्यवर्मा मुनि अपने गुरुके साथ पुण्डरीकिणी नगरीमें आये। साथ ही वह प्रभावती भी अपनी प्रमुख आर्यिका साथ वहाँ गई । ये दोनों संघ वहाँ जाकर शिवंकर उद्यानमें स्थित हुए । Jain Education Internationa For Private & Personal Use Only १७ www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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