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________________ : ३-४, २१-२२] ३. श्रुतोपयोगफलम् ४-५ १२५ योगग्रहणदिन एव तदालयनिकटस्थोद्याने स्थितजिनालयमागतः । वनपालकेनाम्बिकायाः कथिते तया गत्वा वन्दित्वोक्तं हे नाथ, मे पुत्रस्यात बहु विद्यते । स तव शब्दश्रवणेनापि तपो ग्रहीष्यति चेन्मे मरणं स्यादितोऽन्यत्र याहि । मुनिरुवाच-- हे मातर्योगदिनं वर्तते, क्वापि गन्तुं तु नायाति, किन्त्वत्र चातुर्मासिकप्रतिमायोगेन तिष्ठामीतिप्रतिमायोगेने तस्थौ । कार्तिकपूर्णमास्यां रात्रौ चतुर्थयामे योगं निर्वयं विगतनिद्रं तं ज्ञात्वा तदाद्वानार्थं त्रिलोकप्रशप्तेः परिपाटिं कर्तुं प्रारब्धी ? । तां शृण्वन्नच्युतपद्मगुल्मविमानस्थपद्मनाभदेवस्य विभूतिवर्णने क्रियमाणे जातिस्मरो जातः । वैराग्यपरायणो भूत्वा तदुत्तरणोपायः कोऽपि नास्तीति सचिन्तो वस्नपेटिकां ददर्श । ततो वस्त्राण्याकृष्य परस्परं संधिं दत्त्वा तदनमेकं स्तम्भे बद्धमन्यद भूमौ निक्षिप्तम् , तां वस्त्रमालां धृत्वा पुण्येनोत्तीर्णः तदन्तिकं जगाम, तं वन्दित्वा दीक्षां ययाचे । यतिनोक्तं त्वया भद्रं कृतम् , दिनत्रयमेवायुरिति । तदनु स 'विविक्ते शिलातले संन्यासं ग्रहीष्यामि' इति दिदीक्षे । प्रातः पुरान्निर्गत्य मनोज्ञप्रदेशे प्रायोपगमनं जग्राह । यशोभद्राचार्योऽपि तस्मानिर्गत्यै लिये वर्षायोग ग्रहण करने के दिन ही उसके भवनके निकटवर्ती उद्यानमें स्थित जिनभवनमें आया । तब वनपालने मुनिके आनेका समाचार सुकुमारकी माताको दिया। इससे उसने वहाँ जाकर मुनिकी वंदना करते हुए उनसे कहा कि हे नाथ ! मुझे पुत्रका मोह बहुत है । वह तुम्हारे शब्दोंके सुननेसे ही यदि तपको ग्रहणकर लेता है तो मेरा मरण निश्चित है। इसीलिये आप यहाँसे किसी दूसरे स्थानमें चले जावें । इसके उत्तरमें मुनि बोले कि हे माता ! आज वर्षायोगका दिन है, अत एव अब कहीं अन्यत्र जाना सम्भव नहीं है। अब मुझे चातुर्मासिक प्रतिमायोगसे यहींपर रहना पड़ेगा। इस प्रकार वे मुनिराज प्रतिमायोगसे वहींपर स्थित हो गये । जब उनका चातुर्मास पूर्ण होनेको आया तब उन्होंने कार्तिककी पूर्णिमाको रात्रिके अन्तिम पहरमें वर्षायोगको समाप्त किया । इस समय उन्होंने जाना कि अब सुकुमारकी निद्रा भंग हो चुकी है। तब उन्होंने उसको बुलानेके लिए त्रिलोकप्रज्ञप्तिका अनुक्रमसे पाठ करना प्रारम्भ कर दिया । उसमें जब अच्युत स्वर्गके पद्मगुल्म विमानमें स्थित पद्मनाभ देवकी विभूतिका वर्णन आया तब उसे सुनकर सुकुमारको जातिस्मरण हो गया । इससे उसके वैराग्यभावका प्रादुर्भाव हुआ। तब वह उस भवनसे बाहर जानेको उद्यत हुआ । परन्तु उससे बाहर निकलनेके लिये उसे कोई उपाय नहीं दिखा। इससे वह व्याकुल हो उठा । इतने में उसे एक वस्त्रोंकी पेटी दीख पड़ी। उसमेंसे उसने वस्त्रों को निकाल कर उन्हें परस्परमें जोड़ दिया। फिर उसने उस वस्त्रमालाके एक छोरको खम्भेसे बाँधा और दूसरेको नीचे जमीन तक लटका दिया। इस प्रकार वह उस वस्त्रमालाका अवलम्बन लेकर पुण्योदयसे उस भवनके बाहिर आ गया। तत्पश्चात् उसने मुनिराजके निकट जाकर उनकी वंदना करते हुए उनसे दीक्षा देने की प्रार्थना की। मुनिराज बोले कि तुमने बहुत अच्छा विचार किया है, अब तुम्हारी केवल तीन दिनकी ही आयु शेष रही है। तत्पश्चात् उसने निर्जन शिलातलके ऊपर संन्यास लेनेका विचार किया और वहीं पर दीक्षित हो गया । पश्चात् प्रातःकाल होनेपर उसने नगरके बाहर जाकर किसी मनोहर स्थानमें प्रायोपगमन ( स्व और परकृत सेवा-शुश्रषाका परित्याग) संन्यास ले लिया। यशोभद्राचार्य भी उसे जिनालयसे जाकर किसी अन्य जिनालयमें ठहर १. ब 'तु' नास्ति । २. श योगेन ति प्रतिमा । ३. ब निवृत्य । ४. श प्रारब्धां । ५. ब संधित्वा । ६. फ स्वश्रू ब श्वश्रूः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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