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________________ १२२ पुण्यास्रवकथाकोशम् [३-४, २१-२२: अथावन्तिपूजयिन्यां राजा वृषभाङ्कः श्रेष्ठी सुरेन्द्रदत्तो रामा यशोभद्रा। सा पुत्रो नास्तीति विषण्णा यावदास्तें तावद्राजाज्ञाकारितानन्दभेरीनादं श्रुत्वा किमर्थोऽयं नाद इत्यप्राक्षीत् । सख्या भाषितम् 'सुमतिवर्धनो मुनिरुद्याने आगतस्तं वन्दितुं गमिष्यति नरेशः, इति भेरीरवः' इति विबुध्य सापि जगाम । तं वन्दित्वा पृच्छति स्म-हे नाथ, मे पुत्रो भविष्यति नो वेति । मुनिरुवाच-पुत्रो भविष्यति, किंतु तन्मुखं विलोक्य त्वत्पतिस्तपो गृहोष्यति, मुनेरवलोकनेन तनुजोऽपि । श्रुत्वा सा सहर्ष-विषादा जाता। कतिपयदिनैर्गर्भसंभूती श्रेष्ठी ज्ञास्यतीति भूमिगृहे प्रसूता । तदमेध्यलिप्ताशुचिवस्त्रं प्रक्षालयन्त्यश्चेटिकाया ज्ञात्वा कश्चिद्विप्रो वेणुवद्धध्वजहस्तः श्रेष्ठिनोऽचीकथत् । सोऽपि तन्मुखं विलोक्य विप्राय बहु द्रव्यं दत्त्वा दीक्षितः। तया तनुजं सुकुमाराभिधं कृत्वा यथा मुनि न पश्यति तथा करोमीति स्वर्णमयोऽनेकरत्नखचितः सर्वतोभद्राख्यो माटः कारितः । तत्समन्ताद्रजतमया द्वात्रिंशन्माटाः । स तत्राहोरात्रादिकालभेदं राजादिजातिभेदं शोतातपादिकं चाजानन्तुविमाने सुरेशवद्वृद्धिं जगाम । यूनस्तस्य चतुरिकाचित्रा अवन्ति देशके भीतर उज्जयिनी पुरीमें राजा वृषभांक राज्य करता था। इसी नगरीमें एक सुरेन्द्रदत्त नामका सेठ रहता था। उसकी पत्नीका नाम यशोभद्रा था। इसके कोई पुत्र नहीं था। इसलिए वह उदास रहती थी। एक समय उसने राजाके द्वारा करायी गई आनन्दभेरीके शब्दको सुनकर पूछा कि यह भेरीका शब्द किसलिये कराया गया है ? इसके उत्तरमें उसकी सखीने कहा कि उद्यानमें सुमतिवर्धन नामके मुनिराज आये हुए हैं । राजा उनकी वन्दनाके लिये जायगा। इसीलिए यह भेरीका शब्द कराया गया है। इस शुभ समाचारको सुनकर वह यशोभद्रा भी मुनिकी वन्दनाके लिये उस उद्यानमें जा पहुँची । वन्दना करनेके पश्चात् उसने उनसे पूछा कि हे नाथ ! मेरे पुत्र होगा कि नहीं ? मुनि बोले--- पुत्र होगा, किन्तु उसके मुखको देखकर तुम्हारा पति दीक्षा ग्रहण कर लेगा। इसके अतिरिक्त मुनिका दर्शन पाकर वह पुत्र भी दीक्षित हो जावेगा। यह सुनकर उसे हर्ष और विषाद दोनों हुए। कुछ दिनोंमें यशोभद्राके गर्भाधान हुआ। पश्चात् उसने सेठको पुत्रजन्मका समाचार न ज्ञात हो, इसके लिये तलघरके भीतर पुत्रको उत्पन्न किया। परन्तु उसके रुधिर आदि अपवित्र धातुओंसे सने हुए वस्त्रोंको धोती हुई दासीको देखकर किसी ब्राह्मणने उसका अनुमान कर लिया । तब वह बाँसमें बँधी हुई ध्वजाको हाथमें लेकर सेठके पास गया और उससे इस पुत्रजन्मकी वार्ता कह दी। सेटने पुत्रके मुखको देखकर उस ब्राह्मणको बहुत द्रव्य दिया। फिर उसने दीक्षा ले ली । यशोभद्राने पुत्रका नाम सुकुमार रखकर 'वह मुनिको न देख सके' इसके लिये सर्वतोभद्र नामका अनेक रत्नोंसे खचित एक सुवर्णमय भवन बनवाया। इसके साथ उसने उसके चारों ओर रजतमय ( चाँदीसे निर्मित ) अन्य भी बत्तीस भवन बनवाये । इस भवनमें रहता हुआ वह सुकुमार दिन व रात आदिरूप कालके भेदको, राजा व प्रजा आदिरूप जातिभेदको तथा शीत ओर आतप आदिके दु:खको भी नहीं जानता था । वह ऋतु विमानमें स्थित इन्द्र के समान इस सुन्दर भवनमें वृद्धि को प्राप्त हुआ । जब सुकुमार युवावस्थाको प्राप्त हुआ १. प-श :सुमतिवर्धमाननामा मुनि । २. ब जिगमिषति । ३. ब क्य तवेशस्तपो। ४. पश 'लिप्तामूल्यवस्त्रं बलिप्तासूच्यवस्त्रं । ५. प श°श्चेटिकया। ६. ब श्रेष्ठिनो कथयन् । ७. ब रत्नसंचितः । ८. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श तत्समाना रजत । ९. प फ माटः । १०. प श चाजानन् रितु फ चाजानन् ऋजु । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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