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________________ : ३-४, २१-२२] ३. श्रुतोपयोगफलम् ४-५ ११५ ज्ञात्वा परीक्ष्य च चण्डकर्मणा' धृतौ दम्पती राजवचनेनेमां शास्ति प्राप्ताविति प्रतिपादिते नागश्रिया भणितम्- परपुरुषमुखं दुष्टबुद्धया नावलोकनीयमिति तत्समीपे व्रतं गृहीतं मया, तत्कथं त्यज्यते । द्विज़ोऽवदत्तिष्ठत्विदमपि ॥४॥ यदन्यत्तत्तस्य समप्ये यावः आगच्छेत्यग्रे गमने कंचन बद्धं पुरुषं कोट्टपालैारणाय नीयमानं वितयं पुत्री पितरमपृच्छत् कोऽयं किमितीमं विधि प्राप्त इति । स कथयत्ययं राज्ञः क्षीराहारी वीरपूर्णनामा। एकदा पट्टवाजिनिमित्तं रक्षिततृणप्रदेशे कस्यचिद् गोधनं प्रविष्टम् । तदनेनानीय राज्ञो दर्शितम् । राज्ञोक्तमिदं त्वमेव गृहाण । अनेन तद् गृहीत्वातिव्याप्तिः कृता देशमध्ये यदुत्कृष्टं जीवधनं तत्त्वं गृहाणेति राज्ञा मह्यं वरो दत्त इति । ततः सर्वेषां तस्मिन् गृहोते देव्या महिषीर्गृहीतवान् । तया राक्ष: कथिते तेनास्य मारणं कथितमिति निरूपिते नागश्रीरुवाच- तर्हि बहुपरिग्रहाकाङक्षानिवृत्तिव्रतं मयादायि, तत्कथं परिहियते इति । सोऽगदत्तिष्ठत्विदमपि ॥५॥ तं निर्भयागच्छाव इति गत्वा दूरस्थेनोक्तम्-हे दिगम्बर, मम पुत्र्याः किमिति व्रतं दत्तमिति । यतिरभाषत-हे द्विज, इस दुराचरणकी वार्ता कोतवालको ज्ञात हुई तब उसने इसकी जाँच-पड़ताल की। तत्पश्चात् अपराधके प्रमाणित हो जानेपर वे दोनों पकड़ लिये गये और इस प्रकारसे दण्डके भागी हुए हैं। इस प्रकार नागशर्माके कहनेपर नागश्री बोली कि हे तात ! मैंने तो मुनिके. पास यह व्रत ग्रहण किया है कि मैं दुर्बुद्धिसे किसी भी परपुरुषका मुख न देखूगी। फिर मैं उसे क्यों छोइँ ? इसपर नागशर्मा बोला कि अच्छा इसे भी रहने दे, जो एक और शेष है उसे वापिस करके आते हैं, चल ॥४॥ तत्पश्चात् और आगे जानेपर मार्गमें उन्हें एक ऐसा पुरुष मिला जिसे पकड़कर कोतवाल मारनेके लिए ले जा रहे थे। उसके विषयमें ऊहापोह करते हुए पुत्रीने पितासे पूछा कि यह कौन है और किस कारणसे इस अवस्थाको प्राप्त हुआ है ? नागशर्मा बोला--- यह वीरपूर्ण नामक राजाका पुरुष है जो दूधका आहार करनेवाला (ग्वाला ) है । राजाके मुख्य घोड़ेके निमित्त घासके लिए जो प्रदेश सुरक्षित था उसके भीतर एक वार किसीकी गाय जा पहुंची थी। वीरपूर्णने लाकर उसे राजाको दिखलाया । तब राजाने कहा कि इसे तुम्हीं ले लो। तदनुसार इसने उसको लेकर न्यायमार्गका अतिक्रमण करते हुए यह नियम ही बना लिया कि 'देशमें जो भी उत्तम पशुधन है उसको तुम ग्रहण करो' ऐसा राजाने मुझे वरदान दिया है । इस प्रकारसे उसने सबके पशुधनको ग्रहण कर लिया । अन्तमें जब उसने रानीकी भैंसोंको भी ले लिया तब रानीने इसकी सूचना राजासे की । इसपर राजने इसे मार डालनेकी आज्ञा दी है । इस घटनाको सुनकर नागश्रीने कहा कि मैंने तो बहुत परिग्रहकी इच्छा न रखनेका नियम किया है, उसे मैं कैसे छोड़ ? इसके उत्तरमें नागशर्माने कहा कि इसको भी रहने दे। चलो, उस मुनिकी भर्त्सना ( तिरस्कार ) करके आते हैं ॥५॥ इस प्रकार मुनिके पास जाकर और दूर ही खड़े रहकर नागशर्माने मुनिसे कहा कि हे दिगम्बर ! तुमने मेरी पुत्रीके लिये व्रत क्यों दिया है ? इसपर मुनि बोले कि हे विप्र ! मैंने अपनी १. ब चण्डकर्मणे । २. ब यदन्यत्तस्य । ६. श विभक्यं । ४. श ब-प्रतिपाठोऽयम् । श महिषी गृहीतवान् । ५. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श दत्तमपि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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