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________________ : ३-४, २१-२२ ] ३. श्रतोपयोगफलम् ४-५ ११३ आगमने यत्कर्तव्यं तत्कुरु । तस्यापि सूनृतं दत्त्वाग्रे गता। सोऽपि तथा तन्मार्गे लग्नः । ततः कोऽपि कोट्टपालो मिलितः । तेन ध्रियमाणा तथैव गता । सोऽपि तथा । ततस्तदापणं प्राप्ता । धनदेवोऽब्रवीदन्धकार निशि किमित्यागतासि । पूर्व त्वं कन्या मे शालिकेति वकरण मया तद्भणितमिदानीं त्वं परस्त्रीति भगिनीसमा, याहि स्वस्थानमिति । अन्य स्त्रिभिरपि त्वं सत्यवती मातृसमेति भणित्वा प्रेषितेति कथां निरूप्यापृच्छत् सुमतिश्चतुर्णाक उत्कृष्ट इति । मेण्ढिकाचौरश्चौरं स्तुतवान् पिशितकर्ता राक्षसं रक्षकः आरक्षकं वेश्यापतिर्धनदेवम् । तदा तदभिप्रायं विबुध्य तच्छयनस्थलं प्रेषिताः । स्वयमपि निद्रांचकार । द्वितीयेऽह्नि येन चौरः प्रशंसितः स आहृतः स्वतूलिकातले उपवेश्योक्तवती तवानुरक्ताहम्। किंतु पितरावेकेन सार्ध स्थातु मे न प्रयच्छतस्तस्माद्देशान्तरं याव इति। तेनाभ्युपगते द्रव्येण भवितव्यमिति स्वद्रव्यपोलिका तदने व्यधात्सा इदं मदीयं स्वम् , त्वदीयं किंचिदस्ति नो वा । तेनामाणि गृहेऽस्ति, हस्ते इदमस्तीति स पोट्टलक्तको दर्शितो मया गृहीत इति स्वरूपं चाभिधायि । तयोक्तं प्रातर्यावो याहि स्वशयनस्थलमिति पोट्टलं स्वयं गृहीत्वा विसर्जितः । अपराह्न पितुर्हस्ते इसलिये मेरे वापिस आनेपर जो तुम्हें अभीष्ट हो करना । इस प्रकार वह उसके लिये भी सत्य वचन देकर आगे गई। वह भी उसी प्रकारसे उसके मार्गमें पीछे लग गया। तत्पश्चात् उसे कोई एक कोतवाल मिला । वह जब उसे पकड़ने लगा तब वह उसे भी उसी प्रकार वचन देकर आगे गई । वह भी उसी प्रकारसे उसके पीछे लग गया। अन्तमें वह इस क्रमसे धनदेवकी दुकानपर पहुँच गई । तब धनदेवने उससे कहा कि तुम रातको अन्धकारमें क्यों आई हो ? पूर्वमें तुम कन्या व मेरी साली थीं, अत एव मैंने मजाकमें वैसा कह दिया था। अब तुम परस्त्री हो, अतः मेरे लिये बहिनके समान हो, अपने घर वापिस जाओ। इसपर अन्य (चोर आदि) तीनोंने भी 'सत्य भाषण करनेवाली तुम हमारे लिये माताके समान हो' कहकर उसे घर वापिस भेज दिया । इस कथाको, कहकर सुमतिने उनसे पूछा कि उन चारोंमें उत्तम कौन है ? तब उनमेंसे भेड़के चोरने चोरकी, मांस ग्रहण करनेवालेने राक्षसकी, रक्षा करने वालेने कोतवालकी, तथा वेश्याके पतिने धनदेवकी प्रशंसा की। इस प्रकारसे सुमतिने उनके अभिप्रायको जानकर उन्हें शयनागारमें भेज दिया और स्वयं भी सो गई। दूसरे दिन जिसने चोरकी प्रशंसा की थी उसको बुलाकर सुमतिने अपनी गादीके ऊपर बैठाते हुए उससे कहा कि मैं तुम्हारे ऊपर आसक्त हूँ। परन्तु मेरे माता पिता मुझे किसी एक पियतमके साथ नहीं रहने देते हैं। इसलिये मेरी इच्छा है कि हम दोनों किसी दूसरे स्थानपर चलें । जब उसने इस बातको स्वीकार कर लिया तब सुमतिने, यह कहते हुए कि देशान्तरमें जानेके लिये द्रव्य चाहिये, उसके आगे अपने द्रव्यकी एक पोटरी रख दी। फिर उसने कहा कि इतना द्रव्य तो मेरे पास है, तुम्हारे पास भी कुछ है या नहीं ? उसने उत्तर दिया कि मेरा द्रव्य घरमें है तथा इतना द्रव्य हाथमें भी है। यह कहते हुए उसने पोटरी दिखलाई। साथ ही उसने मैंने इसे किस प्रकारसे ग्रहण की है, यह भी प्रगट कर दिया। तब उसने कहा कि ठीक है, प्रातःकालमें चलेंगे। फिर उसने यह कहते हुए कि अब तुम अपने शयन-गृहमें जाओ, उसकी उस पोटरीको स्वयं ले लिया और उसे शयनगृहमें भेज दिया। तत्पश्चात् उसने दोपहरमें उस द्रव्यको पिताके हाथमें देकर उस चोरको दिखला दिया । तब कोतवालने उसे राजाके लिये समर्पित कर १. ब सूक्वतं । २. श प्रेषितः । ३. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श उपविश्योक्तवती । Jain Education Internatif For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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