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________________ १०५ : ३-३, २०] ३. श्रुतोपयोगफलम् ३ समीपं गतः । मुनेनिनिन्दाकरणात् तत्क्षणादेव बुद्धिनाशस्तस्य जातः । ततो निर्मदो मुनीन् प्रणम्य धर्ममाकर्ण्य गर्दभाय राज्यं दत्त्वा पञ्चशतपुत्रैः सह मुनिरभूत् । पुत्राः सर्वे श्रुतधरा जाताः । यममुनेस्तु पञ्चनमस्कारमात्रमपि नायाति । गुरुणा गर्हितो लजितो गुरुं पृष्ठा तीर्थवन्दनार्थमेकाकी गतः। तत्र यवक्षेत्रमध्ये गर्दभरथेन गच्छत एकपुरुषस्य गर्दभा यव. भक्षणार्थ रथं नयन्ति पुननिक्षिपन्ति । तानित्थमवलोक्य यममुनिना खण्डश्लोकः कृतः कसि पुण णिक्खेवसि रे गद्दहा जवं पत्थेसि खादितुं ॥१॥ अन्यदा तस्य मार्गे गच्छतो लोकपुत्राणां क्रीडतां अष्टकोणिका बिले पतिता। ते तामपश्यन्त इतस्ततो धावन्ति । यममुनिना तामवलोक्य खण्डश्लोकः कृतः अण्णत्थ किं पलोवह तुम्हे एत्थम्मि निबुड्डिया छिद्दे अच्छइ कोणिश्रा ॥२॥ अथ एकदा मण्डूकं भोतं पमिनीपत्रतिरोहितसाभिमुखं गच्छन्तमालोक्य खण्ड. श्लोकः कृतः अम्हादो नत्थि भयं दोहादो दीसदे भयं तुझ ॥३॥ हुआ उनके समीपमें गया। मुनियोंके ज्ञानकी निन्दा करनेके कारण उसकी बुद्धि उसी समय नष्ट हो गई। तब अभिमानसे रहित हुए उसने मुनियोंको प्रणाम करके उनसे धर्मश्रवण किया । तत्पश्चात् वह गर्दभ पुत्रको राज्य देकर अन्य पाँच सौ पुत्रोंके साथ मुनि हो गया। उसके वे सब पुत्र आगमके पारगामी हो गये। परन्तु यम मुनिको पंचनमस्कार मन्त्र मात्र भी नहीं आता था। इसके लिये गुरुने उसकी निन्दा की। तब वह लजित होता हुआ गुरुसे पूछकर तीर्थोकी वंदना करनेके लिये अकेला चला गया। मार्गमें उसने एक जौके खेतमें गधोंके रथसे जाते हुए एक मनुष्यको देखा। उसके गधा जौके खाने के लिये रथको ले जाते थे और फिर छोड़ देते थे। उनको ऐसा करते हुए देखकर यम मुनिने यह खण्डश्लोक रचा कडसि पुण णिक्खेवसि रे गदहा जवं पत्थेसि खादिदं ॥१॥ अर्थात् हे गर्दभो ! तुम रथको खींचते हो और फिर रुक जाते हो, इससे ज्ञात होता है कि तुम जौके खानेकी प्रार्थना करते हो । दूसरे समय मार्गमें जाते हुए उसने लोगोंके खेलते हुए पुत्रोंको देखा। उनकी गिल्ली एक छेदमें जा पड़ी थी। वह उन्हें नहीं दिख रही थी । इसलिये वे इधर उधर दौड़ रहे थे । यम मुनिने उसको देखकर यह खण्डश्लोक बनाया 'अण्णत्थ किं पलोवह तुम्हे एत्थम्मि निबुड्डिया छिद्दे अच्छह कोणिआ ॥२॥' अर्थात् हे मूर्ख बालको ! तुम अन्यत्र क्यों खोज रहे हो, तुम्हारी गिल्ली इस छेदके भीतर स्थित है। तत्पश्चात् एक बार उसने एक भयभीत मेंढकको जहाँपर सर्प छुपकर बैठा हुआ था उस कमलिनी पत्रकी ओर जाते हुए देखकर यह खण्डश्लोक बनाया अम्हादो नत्थि भयं दीहादो दीसदे भयं तुज्झ ॥३॥ १. ब कारणात् । २. ब न याति । ३. फ यवभक्ष्यणार्थ, श यवरक्षणार्थ । ४. ब काष्ठकोणिका। ५.ब पलोवसि । ६. फम्मि बुद्धिया । ७. श पद्मिनीपत्र। ८.बतिरोहितं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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