SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 116
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ९५ : २-६, १७ ] २. पञ्चनमस्कारमन्त्रफलम् ६ रुत्पन्नकेवलो गन्धकुटीरूपसमवसरणादिविभूतियुक्तश्चासीत् । श्रीवर्धमानस्वामिनः पञ्चमोऽन्तकृत्केवली' । तदतिशयविलोकनात् देवी सदृष्टिर्बभूव । पण्डिता देवदत्ता च दीक्षां बभ्रतुः । मनोरमापि तज्ज्ञानातिशयमाकर्ण्य सुकान्तं निवार्य तत्र गत्वा दीक्षिता, अन्येऽपि बहवः । सुदर्शनमुनिर्भव्यपुण्यप्रेरणया विहृत्य पौष्यशुक्लपञ्चम्यां मुक्तिमितः धात्रीवाहनादिषु केचिन्मुक्तिमिताः केचित्सौधर्मादिसर्वार्थसिद्धिपर्यन्तं गताः। अर्जिकाः सौधर्माद्यच्युतान्तकल्पेषु केचिद्देवाः काश्चिद्देव्यश्च बभूवुरिति । गोपोऽपि तदुच्चारणे एवंविधोऽभवदन्यः किं न स्यादिति ॥८॥ सौधर्मादिषु कल्पकेषु विमलं भुक्त्वा सुखं चिन्तितं च्युत्वा सत्कुलवल्लभो हि सुभगश्चक्राधिनाथो नरः। भूत्वा शाश्वतमुक्तिलाभमतुलं स प्राप्नुयादादराद् योऽयं सत्पदसौख्यसूचकमिदं पाठीकरोत्यष्टकम् ॥२॥ इति पुण्यास्रवाभिधानग्रन्थे केशवनन्दिदिव्यमुनिशिष्यरामचन्द्रमुमुक्षुविरचिते पञ्चनमस्कारफलव्यावर्णनाष्टकं समाप्तम् ॥२॥ युद्ध करने लगी । अन्तमें वह सातवें दिन पीठ दिखाकर भाग गई । इधर उस उपसर्गके जीतनेवाले मुनिराजको केवलज्ञान प्राप्त हो गया। तब देवोंने गन्धकुटीरूप समवसरणादिकी विभूतिका निर्माण किया। वे श्रीवर्धमान जिनेन्द्र के तीर्थमें पाँचवें अन्तकृत्केवली हुए हैं। इस अतिशयको देखकर वह व्यन्तरी सम्यग्दृष्टि हो गई । पण्डिता और देवदत्ताने भी दीक्षा ग्रहणकर ली। सुदर्शन मुनिके केवलज्ञानकी वार्ताको सुनकर मनोरमाने भी सुकान्तको सम्बोधित करते हुए वहाँ जाकर दीक्षा धारण कर ली । अन्य भी कितने ही भव्य जीवोंने सुदर्शन केवलीके निकट दीक्षा ले ली। फिर सुदर्शन केवलीने भव्य जीवोंके पुण्योदयसे प्रेरित होकर वहाँ से विहार किया । अन्तमें वे पौष शुक्ला पंचमीके दिन मोक्षपदको प्राप्त हुए । राजा धात्रिवाहन आदिकोंमेंसे कितने ही मुक्तिको प्राप्त हुए और कितने ही सौधर्म कल्पको आदि लेकर सर्वार्थसिद्धि तक गये । आर्यिकाओंमेंसे कुछ तो सौधर्म स्वर्गसे लेकर अच्युत स्वर्ग पर्यन्त जाकर देव हो गई और कुछ देवियाँ हुई । इस प्रकार जब ग्वालाने भी उक्त मंत्रवाक्यके प्रभावसे ऐसी अपूर्व सम्पत्तिको प्राप्त कर लिया है तब अन्य विवेकी मनुष्य क्या न प्राप्त करेंगे ? उन्हें तो सब ही प्रकारकी इष्टसिद्धि प्राप्त होनेवाली है ॥८॥ जो भव्य जीव मोक्षपदको प्रदान करनेवाले इस उत्तम अष्टक ( आठ कथाओंके प्रकरण) को पढ़ता है वह सौधर्मादि कल्पोंके निर्मल अभीष्ट सुखको भोगता है। तत्पश्चात् वह वहाँसे च्युत होकर उत्तम कुलमें मनुष्य पर्यायको प्राप्त होता हुआ उत्तम चक्रवर्तीके वैभवको भोगता है और फिर अन्तमें अविनश्वर व अनुपम मोक्ष सुखको प्राप्त करता है ॥२॥ इस प्रकार केशवनन्दी दिव्य मुनिके शिष्य रामचन्द्र मुमुक्ष द्वारा विरचित पुण्यास्रव नामक __ ग्रन्थमें पंचनमस्कारमंत्रके फलका वर्णन करनेवाला अष्टक समाप्त हुआ ॥२॥ १.फन्त:कृत्केवली ब ०न्तकृतकेवली । २. श धातिवाहनादव्यं । ३. ब प्रतिपाठोऽयम् । पफश सौधर्मसर्वार्थसिद्धि। ४. फ श अजिका ब अयिका । ५. ब 'केचिद्देवा' नास्ति । ६. फद्योग्यं श द्योग्रय। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy