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________________ : २-६, १७ ] २. पश्वनमस्कारमन्त्रफलम् चितासि तेन त्वम् । तयोक्तं वञ्चिता अहं ब्राह्मण्यविदग्धा,' त्वं सर्वोत्कृष्टा । त्वत्सौभाग्यं तदनुभवने सफलं नान्यथा । देव्योच्यते 'अनुभूयते एवान्यथा म्रियते' इति प्रतिज्ञायोद्यानं जगाम । तत्र जलक्रीडानन्तरं स्वभवनमागत्य शय्यायां पपात । तधात्र्या पण्डितयाभाणि पुत्रि, किमिति सचिन्तासि । तया कथिते स्वरूपे पण्डितयोक्तं विरूपकं चिन्तितं त्वया । किमित्युक्ते स एकपत्नीव्रतो ऽन्यनारीवार्तामपि न करोति । किं च तव भवनं संवेष्टय सप्तप्राकारास्तिष्ठन्तीति तदानयनमपि दुर्घटं तथोचितमपि न भवतीति । देव्या भण्यते यदि तत्संगो न स्यात्तर्हि मरणं किं न स्यादिति तदाग्रहं विबुध्य पण्डिता तां समुद्धीर्य कुम्भकारगृहं ययौ । पुरुषप्रमाणानि सप्तपुरुषप्रतिविम्बानि कारयति स्म । प्रतिपद्रात्रावेकं तत् स्वस्कन्धमारोप्य राज्ञीभवनं प्रविशन्ती द्वारपालकेन निषिद्धा । ततोऽभाणि तया ममापि किं राशीगृहप्रवेशनिषेधो ऽस्ति । तैरवादीयत्यां वेलायाम् अस्ति । हठात्प्रविशन्ती निर्लोठिता । तदा सा तदपीपतदवदच्चाद्य राशी उपोषितास्य मृण्मयकामस्य पूजां विधाय जागरं करिष्यत्ययं च त्वया भग्न इति प्रातः सकुटुम्बस्य नाशं करिष्यामीति । ततः स भीतः सन् तत्पादयोलग्नोऽभणदद्य प्रभृति ते चिन्तां न करिष्यामि क्षमां कुर्विति । ततः स्वगृहं गता । दिनक्रमेणानेकपिलाने कहा कि मैं मूर्ख ब्राह्मणी ठगायी गयी हूँ और तुम सर्वोत्कृष्ट हो, तुम्हारे सौभाग्यको मैं तभी सफल समझँगी जब कि तुम उसके साथ भोग भोग सको, अन्यथा मैं उसे विफल ही समझँगी । तब अभयमतीने कहा कि मैं यह प्रतिज्ञा करती हूँ कि या तो सुदर्शन के साथ विषयसुखका अनुभव ही करूँगी, अन्यथा प्राण दे दूँगी । यह प्रतिज्ञा करके वह उद्यानमें पहुँची और वहाँ जल-क्रीड़ा करनेके पश्चात् महलमें आकर शय्याके ऊपर पड़ गई । तब उसकी पण्डित धायने पूछा कि हे पुत्री ! तू सचिन्त क्यों है ? इसपर उसने अपनी उस प्रतिज्ञाका समाचार पण्डिता से कह दिया । उसे सुनकर पण्डिताने कहा कि तूने अयोग्य विचार किया है। कारण यह कि सुदर्शन सेठ एकपत्नीव्रतका पालक है, वह अन्य स्त्रीकी बात भी नहीं करता है। दूसरी बात यह कि तेरे भवनको वेष्टित करके सात कोट स्थित हैं, अतएव उसका यहाँ लाना भी दुःसाध्य है | इसके अतिरिक्त वैसा करना उचित भी नहीं है । यह सुनकर अभयमतीने कहा कि यदि सुदर्शन सेठका संयोग नहीं हो सकता है तो मेरा मरण अनिवार्य है । जब पण्डिताने उसके इस प्रकार के आग्रहको देखा तब वह उसे आश्वासन देकर कुम्हारके घर गई । वहाँ उसने कुम्हारसे पुरुषके बराबर पुरुषकी सात मूर्तियाँ बनवायीं । तत्पश्चात् वह प्रतिपदाकी रातको उनमें से एक मूर्तिको अपने कंधे पर रखकर अभयमतीके भवनमें जा रही थी । उसे द्वारपालने भीतर जानेसे रोक दिया । तब पण्डिताने उससे पूछा कि क्या मेरे लिए भी रानीके महल में जाना निषिद्ध है ? तब उसने कहा कि हाँ, इतनी रात्रि में तेरा भी वहाँ जाना निषिद्ध है । इतने पर भी जब वह न रुकी और हठपूर्वक भीतर प्रविष्ट होने लगी तब उसने उसे बलपूर्वक रोकनेका प्रयत्न आज रानीका उपवास था, उसे इस मिट्टी के । इसे तूने फोड़ डाला है । किया । इसपर वह वहाँ गिर गई और बोली कि कामदेवकी पूजा करके रात्रिजागरण करना था अब प्रातः काल में तुझे कुटुम्बके साथ नष्ट कराऊँगी । यह सुनकर वह भयभीत होता हुआ उसके पैरोंपर गिर गया और बोला कि मुझे क्षमा कर, आजसे मैं तेरी चिन्ता नहीं करूँगा - तुझे महलके भीतर जानेसे न रोकूँगा । तत्र बह घर चली गई । दिनानुसार ( दूसरे, तीसरे आदि दिन) उसने इसी १. ब्राह्मण्यदग्धा शब्राह्मणविदग्धा । २. ब तर्हि किं मरणं न । ३. ब प्रतिपदिनरात्रावेकं । ४. फ शं निषिद्धो । For Private & Personal Use Only १२ Jain Education International ६९ www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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