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________________ आज से लगभग तीन वर्ष पूर्व पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी, आचार्य श्री महाप्रज्ञ के सान्निध्य में भगवतीसत्र के संपादन का कार्य चल रहा था। संपादन के अन्तर्गत एक स्थान पर अनेक पशु-पक्षियों के नामों का उल्लेख आया। उनके अर्थावबोध के लिए व्याख्या ग्रंथों का अवलोकन किया गया। किन्तु व्याख्याकारों ने भी इनमें से अनेक शब्दों को लोकतश्चावगन्तयाः लोकतो वेदितव्याः' 'पक्षी विशेषः, पश-विशेषः' आदि आदि कहकर उनके अवबोध की पूर्ण अवगति नहीं की। विभिन्न कोशों का अवलोकन करने के बाद भी हम निर्णायक स्थिति तक नहीं पहुंच पाए। तब गुरुदेव ने फरमाया-वनस्पति कोश की भांति यदि प्राणी कोश भी तैयार हो जाए तो चिर अपेक्षित कार्य की संपूर्ति संभव यह स्पष्ट है कि इस प्रकार का कार्य सरल नहीं है। प्राकृत भाषा में प्रयुक्त प्राणीवाचक शब्द वस्तुतः किस प्राणी-विशेष के परिचायक हैं, उसे सही सही जान लेना एवं आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के संदर्भ में उसकी तुलनात्मक प्रस्तुति कर देना एक बहुत ही श्रमसाध्य कार्य है। एक ही प्रजाति के प्राणियों की विभिन्न नस्लों के लिए अलग-अलग नामों का प्रयोग जहां हुआ है, वहां उनके बीच रहे हुए अन्तर का स्पष्टीकरण करना और भी अधिक कठिन है। प्रस्तुत कोश में यथासंभव इन बातों पर विशेष ध्यान दिया गया Jain Education International For Private &Personal Use Only www.ial
SR No.016052
Book TitleJain Agam Prani kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages136
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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