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________________ १३ एवं देशीनाममाला और इसके अतिरिक्त अन्य प्राकृत व्याकरण एवं कोशग्रंथों का यथेष्ट अनुशीलन किया है । समग्र जैन आगम तथा उन पर लिखे हुए व्याख्या-ग्रंथ-नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, टीकाओं का सूक्ष्म एवं व्यापक परिशीलन द्वारा प्राप्त देशीशब्द भी इस कोष में संग्रहीत हैं। 'अंगविज्जा' जैसे पारिभाषिक शब्दों से परिपूर्ण ग्रंथ से भी देशी शब्दों का इसमें चयन हुआ है । स्थान स्थान पर व्याख्या-ग्रन्थों में 'देशीपदत्वात्', 'देशीवचनत्वात्', 'देशीपदं'ऐसे उल्लेख मिलते हैं, जिनका अविकल उल्लेख इस कोष में किया गया है । यह इसकी एक नवीन विशेषता है। आधुनिक विद्वानों द्वारा वैज्ञानिक ढंग से सम्पादित प्राकृत एवं अपभ्रंश साहित्य में प्राप्त देशीशब्दों का संकलन भी ध्यानपूर्वक किया गया है। देशी शब्दों के संग्रह का ऐसा सर्वाङ्गीण उपक्रम पहली बार ही हुआ है। एक ही कोश में इतनी सामग्री का उपलब्ध होना भविष्य के शोधाथियों के लिए देशी शब्दों पर गवेषणा के क्षेत्र में एक ठोस आधार प्रदान करेगा। हमारे संघ के प्रबुद्ध साधु-साध्वियों एवं समणियों के सम्मिलित प्रयास से ही यह महान कार्य सम्पन्न हो सका है। सम्मिलित प्रयत्न के बिना ऐसे ग्रंथों का निर्माण होना संभव नहीं है। विविध कोश-निर्माण की मौलिक कल्पना परमाराध्य आचार्यश्री एवं युवाचार्यश्री की प्रतिभा की देन है। फलस्वरूप तीन महत्त्वपूर्ण कोश हमारे सामने आ चुके हैं। उसी क्रम में यह देशी शब्दकोश चतुर्थ है। यह धारा अविच्छिन्न है, एवं भविष्य में कई और अधिक उपयोगी कोश विद्वानों के समक्ष आएंगे। परमाराध्य आचार्यश्री की आध्यात्मिक प्रेरणा से कई दुःसाध्य कार्य आसानी से सम्पन्न हो जाते हैं । उनकी आध्यात्मिक प्रेरणा का प्रभाव हम पुनः पुन: अपने जीवन में अनुभव करते हैं, जिसका शब्दों में वर्णन करना संभव नहीं है । हमारे संघ में जो साहित्यिक एवं वैचारिक क्रांति आई है उसका उद्भव-स्थान परमाराध्य आचार्यश्री की आध्यात्मिकता ही है ।। प्रस्तुत कोश की सर्वांगीण समायोजना में मुनि दुलहराजजी का अविकल योग रहा है । मुनिश्री परम श्रद्धेय युवाचार्यश्री की साहित्यिक एवं दार्शनिक रचनाओं के सम्पादन में सतत सहयोग प्रदान करते रहे हैं । युवाचार्यश्री के सुदीर्घ सान्निध्य के फलस्वरूप मुनिश्री ने जो दक्षता प्राप्त की है उसका प्रतिफलन प्रस्तुत कोश में दृष्टिगोचर होता है। मूल ग्रंथों से देशी शब्दों के चयन का कार्य साध्वी अशोकश्रीजी, साध्वी विमलप्रज्ञाजी, साध्वी सिद्ध प्रज्ञाजी एवं साध्वी निर्वाणश्रीजी तथा समणी कुसुमप्रजाजी ने दक्षतापूर्वक सम्पन्न किया। यह गुरुभार-वहन उनकी विद्वत्ता एवं स्थिर अध्यवसाय का ही सुपरिणाम है। इस कोश में दो परिशिष्ट संलग्न किए गए हैं। पहले परिशिष्ट में आगम साहित्य के अतिरिक्त अनेक प्राकृत ग्रंथों तथा त्रिविक्रम के प्राकृत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016051
Book TitleDeshi Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1988
Total Pages640
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size19 MB
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