SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 396
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परिशिष्ट २ । ३४६ पाप-पाप प्रकृति के बन्धन का हेतु होने से पाप तथा पाप प्रकृति का सेवन करने से पापी। चंड-कषाय की उत्कटता से चण्ड । रौद्र-क्रूर कार्य करने वाला। क्षुद्र-अघम व द्रोही। साहसिक-बिना विचारे कार्य करने वाला। अनार्य-जो आर्य श्रेष्ठ कर्मों से दूर है । निघृण-जिसमें पाप के प्रति घृणा नहीं है । नृशंस-दयाहीन । महाभय-जिससे प्रतिपल भय बना रहे । प्रतिभय-प्रत्येक प्राणी जिससे भयभीत रहे । बीहणक-दूसरों को भयभीत करने वाला (दे)। त्रासनक-आकस्मिक भय पैदा करने वाला जिससे शरीर व मन में कंपन पैदा हो जाये। निरपेक्ष-दूसरों के प्रति उदासीन । निर्द्धर्म-श्रुत, चरित्र आदि धर्म से रहित । निष्करुण-करुणा रहित, कठोर हृदय वाला ।' पावय (पापक) प्रस्तुत प्रसंग में संगृहीत सभी शब्द अप्रशस्तमनोविनय के वाचक १. पापक-अशुभ चिन्तन करने वाला। २. सावद्य-गहित कार्य में प्रवृत्त । ३. सक्रिय-मानसिक संताप पैदा करने वाली क्रियाओं में प्रवृत्त । ४. सोत्क्लेश-शोक आदि से अनुगत । ५. आस्नवकर-आस्रवों से संवलित । ६. छविकर-प्राणियों को पीड़ा पहुंचाने की प्रवृत्ति से युक्त । १. प्रटी प ५। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016050
Book TitleEkarthak kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages444
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy