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________________ • परिशिष्ट २ : ३३ क्षेत्रज्ञ-आत्मा को जानने वाला। कुशल-हित की प्रवृत्ति और अहित की निवृत्ति में निपुण । पंडित-पाप से घृणा करने वाला। व्यक्त-प्रौढ बुद्धि वाला। मेधावी-उपायों को जानने वाला । अथवा मर्यादा तथा मेधा से सम्पन्न । अबाल-मध्यम वय वाला। मार्गज्ञ-सत् मार्ग को जानने वाला। पराक्रमज्ञ-यथार्थ स्थान को प्राप्त करने की कला जानने वाला अथवा अपनी शक्ति को जानने वाला। दोसीण (दे) ___ 'दोसीण' बासी अन्न के लिए प्रयुक्त होने वाला देशी शब्द है । बासी अन्न वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श की दृष्टि से विद्रूप हो जाता है अतः व्यापन्न, कुथित आदि सभी शब्द पर्यायाथिक नय की दृष्टि से एकार्थक हैं। धम्मस्थिकाय (धर्मास्तिकाय) यह लोकव्यवस्था के अन्तर्गत लोकव्यापी अजीव द्रव्य है । यह सभी प्रकार की गति और प्रकंपन का माध्यम है । प्रस्तुत प्रसंग में इसके जो अभिवचन गिनाये हैं इनमें दो अभिवचन (धर्म, धर्मास्तिकाय) स्वाभाविक हैं। शेष सारे अभिवचन नामसाम्य के कारण निर्धारित प्रतीत होते हैं । जैसे शब्दकोष में स्वर्ण और धतूरे के सहश नामों का विधान है, वैसे ही धर्म के नामसाम्य से ये अभिवचन उल्लिखित हैं। वास्तव में प्राणातिपात विरमण से कायगुप्ति तक के सारे शब्द धर्म के विभिन्न अंग हैं। धर्म शब्द की सदृशता के कारण इन्हें धर्मास्तिकाय के पर्याय शब्द मान लिये हैं। .. इसके अतिरिक्त चारित्र धर्म के वाचक सामान्य या विशेष सभी शब्द धर्मास्तिकाय के अभिवचन हो सकते हैं। १. सूटी ५ २७२। २. भटी प १४३१ : ततश्च धर्मशब्दसाधावस्तिकायरूपस्यापि धर्मस्य प्राणातिपातविरमणादयः पर्यायतया प्रवर्तन्त इति, ये चान्येऽपि तथा प्रकाराः चारित्रधर्माभिधायकाः सामान्यतो विशेषतो वा शब्दास्ते सर्वेऽपि धर्मास्तिकायस्याभिवचनानीति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016050
Book TitleEkarthak kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages444
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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