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________________ २७८ परिशिष्ट २ अणुत्तर (अनुत्तर) अणुत्तर से विशुद्ध तक के शब्द केवलज्ञान के विशेषण के रूप में प्रयुक्त हैं । केवलज्ञान संपूर्ण ज्ञान है । वह विशुद्ध और अनन्त है । ये सभी शब्द उसकी विशेषताओं के द्योतक हैं । अनुत्तर - सर्वोत्तम । निर्व्याघात - बाधाओं से अप्रतिहत । निरावरण- क्षायिक होने से आवरण रहित । कृत्स्न — सकल ज्ञेय पदार्थों को जानने वाला | प्रतिपूर्ण – जो अपने आप में पूर्ण है । वितिमिर - प्रकाश से युक्त । विशुद्ध--- निर्मल । इस प्रकार भावार्थ में सभी शब्द उत्कृष्ट अर्थ को व्यक्त करते हैं। अणुपविट्ठ ( अनुप्रविष्ट ) अणुवि के अन्तर्गत ६ पर्याय शब्दों का उल्लेख हुआ है । लगभग सभी शब्द आत्मलीन व्यक्ति के विशेषण के रूप में प्रयुक्त हैं । कुछ विशिष्ट शब्दों का अर्थबोध इस प्रकार है- १. आलीन - कछुए की भांति सब ओर से संवृत, काय चेष्टा का निरोध करने वाला | २. प्रलीन - विशेष रूप से संवृत अथवा आवश्यकता उपस्थित होने पर यतनापूर्वक शारीरिक प्रवृत्ति करने वाला । ३. आभ्यन्तरक — भीतर झांकने वाला । अतिवत्त ( अतिवर्त) 'अतिवत्त' शब्द के पर्याय में २७ शब्द और १ धातु का उल्लेख है । अतिवत्त शब्द का अर्थ है— बीत जाना, पुराना होना और व्यर्थ होना । इसमें कुछ शब्द पुरानेपन के वाचक हैं जैसे- पुराण, मलित, जीर्ण इत्यादि । निष्फल, ओपुप्फ आदि शब्द व्यर्थता के बोधक हैं । कुछ शब्द समाप्ति के वाचक हैं, जैसे- निष्ठित, कृत, क्षीण, प्रहीण, अतीत १. ओपटी पृ १९५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016050
Book TitleEkarthak kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages444
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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