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________________ (२१) इसी प्रकार प्रस्तुत कोश में एक ही पदार्थ अथवा भाव की ऋमिक अवस्था व्यक्त करने वाले शब्दों का भी एकार्थक में समावेश है। जैसे'फासिय', 'अहासत्त' आदि । 'फासिय' आदि शब्द व्रतपालन की उत्तरोत्तर अवस्थाओं के वाचक हैं। जहां 'एगट्ठा', पज्जाया', या अनर्थान्तरम् शब्द का प्रयोग हुआ है वहां हमने दो शब्दों को भी इस कोश में समाविष्ट किया है, जैसे-ऊसढं ति वा उच्चं ति वा एगट्ठा । राशिर्गच्छ इत्यनर्थान्तरम् । भोज्जं ति वा संखडि त्ति वा एगट्ठ। लेकिन जहां उन शब्दों का उल्लेख नहीं है वहां हमने दो समानार्थक शब्दों को इसमें संगृहीत नहीं किया है। सामान्यतः इस कोश में जिस शब्द से एकार्थक प्रारम्भ हुआ है उसी को मुख्य शब्द के रूप में रखा है। लेकिन जहां कहीं टीकाकार, चूर्णिकार ने किसी विशेष शब्द के एकार्थक का निर्देश किया है वहां प्रारम्भिक शब्द को मूल न मानकर निर्दिष्ट शब्द को मूल माना है । जैसे समया समत्त पसत्थ संति सुविहिअ सुहं अनिंदं च । अदुगुंछियमगरहियं अणवज्जमिमेऽवि एगट्ठा ।। (आवनि १०३३) यह गाथा 'समया' से प्रारम्भ होती है लेकिन हरिभद्र ने इस गाथा को सामायिक का पर्याय माना है। इसी प्रकार 'पवयण', 'भिक्खु', 'कम्म', 'चंडाल' आदि भी द्रष्टव्य हैं । अनेक स्थलों पर एकार्थक गाथा में भी अन्तिम पद में भाष्यकार अथवा नियुक्तिकार ने किसी विशिष्ट शब्द के एकार्थक का उल्लेख किया है तो उसी । को मूल माना है । जैसे ईहा अपोह वीमंसा, मग्गणा य गवेसणा। . सण्णा सई मई पण्णा, सव्वं आभिणिबोहियं ॥ (नंदी ५४) -~- ये सब 'आभिणिबोहिय' के एकार्थक हैं । यद्यपि इस बात का पूरा ध्यान रखा गया है कि शब्दों की पुनरावृत्ति न हो, लेकिन जहां कहीं भी एक अर्थ का वाचक दूसरे शब्द से प्रारम्भ होने वाला एकार्थक आया है, यदि एक या दो शब्द भी उसमें नवीन हैं तो उन दोनों को अलग अलग ग्रहण किया है, जैसे-इंद शब्द के पर्याय में लगभग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016050
Book TitleEkarthak kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages444
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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