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________________ अवग्रह ४६ - अवग्रह (आभवद् व्यवहार) के तीन प्रकार हैंसचित्त, अचित्त, मिश्र । प्रत्येक के पांच-पांच प्रकार हैं- देवेन्द्रावग्रह, नरेन्द्रावग्रह, माण्डलिकावग्रह, शय्यातरावग्रह और साधर्मिकावग्रह | निम्नांकित व्यक्ति अवग्रह के लिए अधिकृत नहीं हैं - परपाषंडी, निह्नव, बहुत से अवसन्न गीतार्थ, गीतार्थ से अपरिगृहीत साध्वियां, गीतार्थनि श्राविहीन अगीतार्थ, स्वच्छन्दविहारी एकाकी गीतार्थ, असमाप्तकल्प ( पर्याप्त सहयोगियों से रहित) असमर्थ गीतार्थ वाला समुदाय - इन सब सापेक्षस्थविरकल्पियों का अवग्रह नहीं होता। निरपेक्ष - जिनकल्पिक, गच्छ-अप्रतिबद्ध यथालंद आदि का भी अवग्रह नहीं होता । गच्छप्रतिबद्ध यथालंद का अवग्रह होता है। गच्छनिर्गत जिनकल्पी आदि के पास कोई दीक्षार्थी आता है तो वे स्वयं उसे दीक्षित नहीं करते - यह उनका कल्प है। उसे प्रव्रज्या के लिए निकटवर्ती साधुओं के पास जाने का उपदेश देते अथवा यदि वे श्रुतबल से यह जान लेते हैं कि अमुक के पास इसका अनल्प हित होगा तो उसे उस दूरवर्ती साधु के पास जाने का उपदेश देते हैं। वस्तुतः जिनकल्पिक आदि को स्वगच्छ और परगच्छ का विभाग मान्य नहीं है। तार्थनिश्रित गीतार्थ साधु-साध्वियों का क्षेत्र अवग्रह होता है। गीतार्थ अनिश्रित विहार करने वाले अगीतार्थ चतुर्गुरु प्रायश्चित्त के भागी होते हैं। गीतार्थ अनिश्रितों का जो प्रव्रज्या आचार्य होता है, उसके अपने द्वारा दीक्षित शिष्य भी उसके निश्रित नहीं होते । जहां सब अगीतार्थ हों, वहां कोई गीतार्थ आये तो उसकी उपसम्पदा स्वीकार न करने पर गुरु प्रायश्चित्त आता है। कारणवश एकाकी गीतार्थ का भी अवग्रह होता है। जहां जितने दिन समवसरण आदि हो, उतने दिन अवग्रह नहीं होता । अक्षेत्र में भी वसति अवग्रह की मार्गणा होती है। अक्षेत्र की वसति में यदि एक साथ आकर कई साधु रहते हैं तो उन सबका समान अवग्रह होता है, बाद में आने वाला अक्षेत्र होता है - वह क्षेत्र उसके अधिकार में नहीं होता। अवग्रह का प्रमाण पांच कोस है । Jain Education International आगम विषय कोश - २ द्र श्रमण अवसन्न - वह श्रमण, जो आवश्यक, स्वाध्याय आदि विधिपूर्वक नहीं करता और गृहस्थप्रतिबद्ध होता है। असमाधिस्थान – असमाधि उत्पन्न करने वाले स्थानद्र सामाचारी अस्थितकल्प- - वह आचार व्यवस्था, जो प्रथम और कारण । चरम तीर्थंकर के अतिरिक्त मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों के शासनकाल में अनिवार्य नहीं थी । द्र कल्पस्थिति अस्वाध्याय - वह कालखंड और परिस्थिति, जिसमें आगम स्वाध्याय निषिद्ध हो । द्र. स्वाध्याय आगम -आप्तवचन। गणधरों एवं स्थविरों द्वारा रचित श्रुत ग्रंथ । - १. आगम के प्रकार २. अंग आदि का सार ३. आचारांग के पर्याय ४. आचारंग की प्राथमिकता क्यों ? ] • आचारांग वाचना की प्राथमिकता * उत्क्रम से वाचना का निषेध * दृष्टिवाद का उत्सारण क्यों ? ५. आचारधर: पहला गणिस्थान ६. अंगप्रविष्ट और अनंगप्रविष्ट की भेदरेखा ० आदेश - मुक्तव्याकरण ७. कालिकश्रुत और दृष्टिवाद की रचनाशैली ८. श्रुत का ग्रहण - परावर्तन काल द्र स्वाध्याय * अकाल में श्रुतस्वाध्याय का पृच्छापरिमाण द्र स्वाध्याय * व्याख्याप्रज्ञप्ति आदि : योगवहन * वाचना में संयमपर्याय की काल मर्यादा द्र श्रुतज्ञान ९. गमिक - अगमिक श्रुत १०. दृष्टिवाद और छेदसूत्र : उत्तम श्रुत ११. दृष्टिवाद की सूक्ष्मता For Private & Personal Use Only द्र उत्सारकल्प www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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