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________________ आगम विषय कोश-२ ३१ अनशन है, तीसरा फिर तैयार हो रहा हो तो निषेध कर देना चाहिए सव्वे सव्वद्धाए, सव्वण्णू सव्वकम्मभूमीसु। क्योंकि पर्याप्त कुशल निर्यापकों के अभाव में उन्हें असमाधि सव्वगरु सव्वमहिता, सव्वे मेरुम्मि अभिसित्ता। उत्पन्न हो सकती है। निर्यापक अनेक हों तो उसको भी सव्वाहि वि लद्धीहि, सव्वे वि परीसहे पराइत्ता। स्वीकृति दी जा सकती है। सव्वे वि य तित्थगरा, पादोवगया तु सिद्धिगया। २६. निर्यापक के महानिर्जरा अवसेसा अणगारा, तीत-पडुप्पण्णऽणागता सव्वे। वर्ल्डति अपरितंता, दिया व रातो व सव्वपडिकम्म। केई पादोवगया, पच्चक्खाणिंगिणिं केई॥ सव्वाओ अज्जाओ, सव्वे विय पढमसंघयणवज्जा। पडियरगा गुणरयणा, कम्मरयं निज्जरेमाणा॥ जो जत्थ होति कुसलो, सोतुन हावेति तंसति बलम्मि। सव्वे य देसविरता, पच्चक्खाणेण तु मरंति॥ उज्जुत्ता सनियोगे, तस्स वि दीवेंति तं सद्धं ॥ __ (व्यभा ४३४७-४३५५) देहवियोगो खिप्पं, व होज्ज अहवा वि कालहरणेणं। अनशनकर्ता के समाधिसम्पादन के लिए मृदु संस्तारक दोण्हं पि निज्जरा, वद्धमाण गच्छो उ एतट्ठा॥ करना चाहिए। यदि वह किसी कारणवश असमाधि का अनुभव (व्यभा ४३३५-४३३७) करे, परीषह या वेदना से आर्त्त हो तो उसे सोदाहरण प्रोत्साहित करना चाहिएश्रेष्ठ गुणसम्पन्न परिचारक या निर्यापक दिन-रात वे धन्य हैं जो धीरपुरुषप्रज्ञप्त, सत्पुरुषनिषेवित, परमरम्य अश्रांत-अक्लांत भाव से अनशनकर्ता का सारा परिकर्म अभ्युद्यत मरण को स्वीकार कर शिलातल पर निरपेक्ष रहते हैंकरते हए कर्मरजों का निर्जरण करते हैं। किसी का सहयोग नहीं लेते। जो जिस परिकर्म में कुशल होते हैं, वे शक्ति होने पर एकमात्र धृति ही जिनकी अत्यंत सहायक होती है, उस परिकर्म की उपेक्षा नहीं करते, वे अपने कार्य में जागरूक ऐसे अतिशय धृति-सम्पन्न अनशनी श्वापदों से आकीर्ण रहकर प्रत्याख्याता की श्रद्धा को संज्वलित करते हैं। स्थानों, गिरिकंदराओं और विषम कटक-दुर्गों में अनशन की प्रत्याख्याता का देहवियोग शीघ्र हो या विलंब से आराधना करते हैं तो फिर आपके लिए उत्तमार्थ (अनशन) हो-इस स्थिति में जागरूक प्रतिचारक और प्रतिचर्यमाण आराधन शक्य क्यों नहीं है? परस्पर संग्रह-उपग्रह की शक्ति दोनों विपल निर्जरा के आभागी होते हैं । गच्छ का प्रयोजन से सम्पन्न अनगार आपके सहयोगी हैं। यही है कि परस्पर उपकार से दोनों के कर्मनिर्जरा हो। जिनवचन अतिशय मधर और अग्नि में घुताहति की २७. अनशनधारी की समाधि का उपाय भांति कानों को तृप्ति देने वाले होते हैं। इन वचनों को सुनने संथारो मउओ तस्स, समाधिहेउं तु होति कातव्वो। वाले, साधुओं से परिवृत उत्तमार्थी सरलता से संसार-सागर तह वि य अविसहमाणे, समाहिहेउं उदाहरणं॥ को तर जाते हैं। सर्वकालों में, सब कर्मभूमियों में सर्वगुरु, धीरपुरिसपण्णत्ते, सप्पुरिसनिसेविते परमरम्मे। सर्वपूज्य, मेरुगिरि पर अभिषिक्त सर्वलब्धिसम्पन्न सर्वज्ञाता धण्णा सिलातलगता, निरावयक्खा निवजंति॥ तीर्थंकरों ने सभी परीषहों को पराजित कर प्रायोपगमन अनशन जदि तावसावयाकुल, गिरि-कंदर-विसमकडगदुग्गेसु। में सिद्धिगति को प्राप्त किया। साधेति उत्तिमटुं, धितिधणियसहायगा धीरा॥ अतीत, वर्तमान और अनागत-तीनों कालों में शेष किं पुण अणगारसहायगेण अण्णोण्णसंगहबलेणं। मुनियों में से यथाशक्ति कई प्रायोपगमन, कई इंगिनी और परलोइए न सक्का, साहेउं उत्तमो अट्ठो॥ कई भक्तपरिज्ञा अनशन स्वीकार करते हैं। जिणवयणमप्पमेयं, मधुरं कण्णाहुतिं सुणताणं। प्रथम (तीन) संहनन वर्जित साधु-साध्वियां तथा सक्का हु साहुमज्झे, संसारमहोदधिं तरिउं॥ श्रावक भक्तप्रत्याख्यान अनशन कर मृत्यु का वरण करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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