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________________ आगम विषय कोश - २ ० संस्तारक संथारो उत्तिमट्ठे, भूमिसिलाफलगमादि नातव्वे । संथारपट्टमादी, दुगचीरा तू बहू वावि ॥ तह विय संथरमाणे, कुसमादी णिंतु अझुसिरतणाई । तेसऽसति असंथरणे, झुसिरतणाई ततो पच्छा॥ (व्यभा ४३४२, ४३४३) २९ अनशनस्थित मुनि के लिए भूमि या शिलातलरूप या फलकरूप संस्तारक होता है। संस्तारक पर एक उत्तरपट्ट बिछाने से उसे असमाधि हो तो अनेक उत्तरपट्ट भी बिछाये जा सकते हैं । इतने पर भी पूर्ण समाधि न हो तो कुश आदि का निश्छिद्र या शुषिर तृणसंस्तारक भी बिछाया जा सकता है। २१. अनशनकर्त्ता का स्वावलम्बन पडिलेहण संथारं, पाणगउव्वत्तणादि निग्गमणं । सयमेव करेति सहू, असहुस्स करेंति अन्ने उ ॥ कायोवचितो बलवं, निक्खमणपवेसणंच से कुणति । तह वि य अविसहमाणं, संथारगतं तु संचारे ॥ (व्यभा ४३४५, ४३४६ ) जो भक्तप्रत्याख्याता समर्थ है, शरीर से उपचित और बलवान् है, वह अपना कार्य स्वयं करे। जैसे- प्रतिलेखन, संस्तारकप्रस्तारण, पानकग्रहण, करवट बदलना, भीतरी प्रदेश से बाहर निर्गमन तथा बाह्य प्रदेश से पुनः भीतर प्रवेश आदि । जो अनशनधारी असमर्थ है, उसके सारे कार्य अन्य मुनि करते हैं। अन्य के सहारे से भी वह संचरण न कर सके तो संस्तारक पर ही उसके सारे कार्य किए जाते हैं। २२. भक्तप्रत्याख्यानी की वैयावृत्त्य विधि उव्वत्तणा य पाणग, धीरवणा चेव धम्मकहणा य । अंतो बहिनीहरणं, तम्मि य काले णमोक्कारो ॥ (व्यभा ७५५) • अनशनधारी की शारीरिक शक्ति क्षीण होने से वह स्वयं उद्वर्तनापरिवर्तना आदि क्रियाएं नहीं कर पाता हो तो उसका इन कार्यों में सहयोग करने से उसे परम समाधि उत्पन्न होती है Jain Education International • प्यास परीषह उत्पन्न होने पर उसे पानी पिलाना होता है। • किसी कष्ट के कारण वह अधीर हो जाए तो उसे इन शब्दों में ढाढस बंधाया जाता है-'धृति धारण करो। तुम्हारी पैर आदि की पीड़ा विश्रामणा ( दबाने से दूर कर दूंगा । हे पुण्यभाग ! सहन करो, शीघ्र सर्वदुःखमुक्त हो जाओगे । ' कष्टसहिष्णुता और समता की प्रेरणा देने वाले पूर्व मुनियों अपूर्व जीवनवृत्त सुनाये जाते हैं । • उष्ण परीषह उत्पन्न होने पर उसे कक्ष से बाहर और वायु आदि सहन न होने पर पुनः भीतर ले जाया जाता है। भेदज्ञान और अन्तर्लीनता के लिए नमस्कार महामंत्र, लोगस्स आदि सूत्रपाठ सुनाये जाते हैं । २३. आत्मनिर्यापक- परनिर्यापक ० ० अनशन इह दुविधा निज्जवगा, अत्ताण परे य बोधव्वा ।। पादोवगमे इंगिणि, दुविधा खलु होंति आयनिज्जवगा। निज्जवणा य परेण व, भत्तपरिण्णाय बोधव्वा ॥ (व्यभा ४२२०, ४२२१ ) निर्यापक (निर्वाहक) के दो प्रकार हैं- आत्मनिर्यापक, परनिर्यापक। प्रायोपगमन और इंगिनीमरण में आत्मनिर्यापक होते हैं (वे किसी से सेवा नहीं लेते) तथा भक्तपरिज्ञा में दूसरे के द्वारा भी निर्यापना/ सेवा की जाती है। २४. अनशन में कुशल निर्यापक की भूमिका : दृष्टांत वसधे जोधे य तहा, निज्जामगविरहिते जहा पोते । पावति विणासमेवं भत्तपरिण्णाय संमूढो ॥ नामेण वि गोत्तेण य, विपलायंतो वि सावितो संतो । अविभीरू वि नियत्तति, वसभो अप्फालितो पहुणा ॥ अप्फालिया जह रणे, जोधा भंजंति परबलाणीयं । गीतजुतो उ परिण्णी, तध जिणति परीसहाणीयं ॥ सुनिउणनिज्जामगविरहियस्स पोतस्स जध भवे नासो । गीयत्थविरहियस्स उ तहेव नासो परिण्णिस्स ॥ निउणमतिनिज्जामगो, पोतो जह इच्छितं वए भूमिं । गीतत्ववेतो, तह य परिण्णी लहति सिद्धिं ॥ (व्यभा ७५०-७५४) जैसे स्वामी से रहित वृषभ और योद्धा तथा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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