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________________ परिशिष्ट २ ६७६ आगम विषय कोश-२ चन्द्रकवेध-राधावेध, चक्राष्टक के उपरिवर्ती पुतली निषीधिका-स्वाध्यायभूमि। के बायें अक्षिगोलक का वेधन करना। 'निषीधिका' स्वाध्यायभूमिः। (आचूलावृ प ३६१) चन्द्रको नाम चक्राष्टकोपरिवर्त्तिन्याः पुत्तलिकाया वामा- पंजर-आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर और गणाक्षिगोलकः तस्य वेधनः-ताडनम्। (बभा २८७६ की व) वच्छेदक-इन पांचों से परिगृहीत गच्छ। (द्र उपसम्पदा) चरंती दिशा-वह दिशा, जिसमें तीर्थंकर, केवली, परिज्ञावान्-अनशनकर्ता। श्रुतकेवली, युगप्रधान आचार्य आदि विहरण करते 'परिज्ञावान्' अनशनी। (बृभा ४४४२ की वृ) हैं। (द्र आलोचना) पल्ली-जहां अनेक प्राणी उपमर्दित होते हैं। चिरप्रवजित-तीन वर्ष का दीक्षित मुनि। पांच वर्ष का बहुप्राण्युपमर्दो यत्र सा पल्ली। (निचू १पृ १२२) दीक्षित मुनि। बीस वर्ष का दीक्षित मुनि। (द्र दीक्षा) पश्चात्कृत-वह गृहस्थ, जो पहले साधु था। छत्रच्छाया-आचार्य के शय्यातर का घर । (द्र शय्यातर) पुराणो पच्छाकडो। (निचू ३ १ १०१) जूह-कांजी। चावलोदक अथवा मूंग का पानी। पारिहारिक-एक मासिक यावत् छहमासिक प्रायश्चित्त जूहं च कांजिकमित्यर्थः । तंडुलोदगं मुद्गरसो वा जूहं भण्णति। प्राप्त मुनि। भिक्षा आदि के दोषों का परिहार करने वाला (निचू३ पृ१०३) उद्यतविहारी साधु। डहरिका-जन्म से लेकर अठारह वर्ष तक की लड़की। पायच्छित्त... आवण्णो मासाति जाव छम्मासियं सो परिहारियो। जन्मपर्यायेण यावदष्टादशिका अष्टादशवर्षप्रमाणा तावद् भवति (निचू २ पृ ३०३) परिहारिक:-पिण्डदोषपरिहरणादुद्युक्तडहरिका। (व्यभा २३१२ की वृ) विहारी साधुः । (आचूलावृ प ३२४) तीर्थ-चातुर्वर्ण श्रमणसंघ । द्वादशांग गणिपिटक। पारिहारिककुल-स्थापित कुल। (द्र स्थापनाकुल) तित्थं चाउवण्णो समणसंघो दुवालसंगं वा गणिपिडगं। पूतिकर्म-अविशोधिकोटि के दोष (आधाकर्म आदि) (निचू १ पृ१२२) से युक्त सम्मिश्रित आहार आदि। (द्र पिण्डैषणा) दंडपरिहार-बड़ी जीर्णकम्बल। पृष्ठमासिक-चुगलखोर, जो परोक्ष में दूसरों का महती जीर्णकम्बलिका दण्डपरिहार उच्यते। अवर्णवाद करता है। (बृभा २९७७ की वृ) पिट्ठिमंसितो परमुहस्स अवण्णं बोल्लेइ । (दशाचू प ७) दृष्टिप्रधान-युगप्रधान। प्रकाशभोजी-दिन में भोजन करने वाला। दिट्ठिप्पहाणेहिं.. युगप्रधानैरित्यर्थः । (व्यभा ३७११ की वृ) प्रकाशभोई दिवसतो भुंजति न रात्रौ। (दशाचू प ४१) देवचिन्तक-निमित्तज्ञ, शुभ-अशुभ बताने वाले। प्रतीच्छक-सूत्रार्थग्राहक साधु, जो अन्य गण से आकर देवचिन्तका नाम ये शुभाशुभं राज्ञः कथयन्ति। श्रुत आदि के लिए उपसम्पदा स्वीकार करता है। (व्यभा ४५६७ की वृ) पाडिच्छे त्ति येऽन्यतो गच्छान्तरादागत्य साधवस्तत्रोपसम्पदं नालिका-घटिका, जिससे जल गिरने के आधार पर गृह्णन्ति ते प्रतीच्छकाः। (व्यभा ९५७ की वृ) प्रतीच्छकः कालबोध होता है। परगणवर्ती सूत्रार्थतदुभयग्राहकः । (व्यभा १६८२ की वृ) नालीत त्ति घडितो उदगगलणोवलक्खितो कालो। प्रत्याजाति-एक भव से च्युत होकर पुनः उसी भव में (निचू ४ पृ ३४१) जन्म लेना। प्रत्याजाति मनष्य और तिर्यंचों की ही होती है। निरुद्धपर्याय-जिसे दीक्षित हुए तीन वर्ष पूर्ण हो चुके हों। जत्तो चओ भवाओ, तत्थेव पुणो विजह हवति जम्म। णिरुद्धपरियागो णाम जस्स तिण्णि वरिसाणि परियायस्स सा खल पच्चाजाती. मणस्स-तेरिच्छिए होइ॥ संपुण्णाणि। (निचू ४ पृ २६८) (दशानि १३२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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