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________________ आगम विषय कोश-२ ६५५ स्वाध्याय अगीतार्थ नायक मध्यस्थ हो, उद्दीपक भाषाभाषी (हंसी- आवश्यक बिना किए ही गुरु को वन्दना करे, ज्येष्ठ मुनि आलोचना मजाक करने वाला) न हो तथा जिससे साधु डरते हों, जिसका ले और अभिशय्या में जाकर आवश्यक करे। यथोचित सम्मान करते हों, जो स्वयं अप्रमत्त हो, सामाचारी की प्रात: व्याघात न हो, तो आवश्यक किए बिना ही अभिशय्या अनुपालना कराने में कुशल हो, उसी को नायक बनाकर प्रेषित । से वसति में आकर गुरु के साथ आवश्यक करे। व्याघात हो, तो करना चाहिए। जो असामाचारी के दोषों का प्रतिषेध कर सके, देश या सर्व आवश्यक कर वसति में आये। वैसा सक्षम नायक हो। यथा १९. स्वाध्यायभूमि : विहारभूमि ___ कोई स्वाध्याय, आवश्यक, कायोत्सर्ग आदि न करे, हीन ___ असज्झाए सज्झायभूमी जा सा विहारभूमी। या अधिक करे। शय्या-संस्तारक, उपधि, दण्ड, उच्चार ___ (नि २/४० की चू) प्रस्रवणभूमि-इनकी प्रतिलेखना न करे, हीनाधिक करे, काल का उपाश्रय में अस्वाध्यायिक के समय जो स्वाध्यायभूमि होती अतिक्रमण कर करे, गुरु और रत्नाधिक का विनय न करे, उनको यथाविधि वन्दना न करे, शीतभय से लेटे-लेटे या बैठे-बैठे __ है, उसे विहारभूमि कहा जाता है। कायोत्सर्ग करे। राजा, स्त्री, अश्व, हस्ति, वानमंतर प्रतिमायुक्त विहारभूमि में एकाकी गमन-निषेध, अपवाद रथ आदि को उत्सुकता से देखे, कालप्रतिलेखना न करे, नखों से नो कप्पइ निग्गंथस्स एगाणियस्स राओ वा वियाले वा वीणावादन या घर्षण करे, कामोद्दीपक शब्द बोले, हास्य-कुतूहल बहियाविहारभूमिं वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा। करे इत्यादि । नायक के द्वारा इन दोषाचरणों का निषेध किये जाने कप्पड़ से अप्पबिइयस्स वा अप्पतइयस्स वा.॥ (क १/४५) पर भी अभिशय्यावासी उनसे निवृत्त न हों तो नायक अविस्मरण हेतु उन दोषों को लेखक की भांति अपने हृदय में लिख ले अकेला निर्ग्रन्थ रात्रि या विकाल में उपाश्रय से बाहर (मन में सम्यक् अवधारण करे) और फिर गुरु को निवेदन करे। विहारभूमि में गमन-प्रवेश नहीं कर सकता। वह एक या दो गुरु उन्हें प्रायश्चित्त दें। साधुओं के साथ वहां जा सकता है। १८. अभिशय्या में गमनागमन-विधि ..."अह विक्कतो उ, नवं च सुत्तं सपगासमस्स। धरमाणच्चिय सूरे, संथारुच्चार-कालभूमीओ। सज्झातियं णत्थि रहं च सुत्तं, णयावि पेहाकुसलो स साहू॥ पडिलेहितऽणुण्णविते, वसभेहि वयंतिमं वेलं॥ आसन्नगेहे दियदिट्ठभोमे, घेत्तूण कालं तहि जाइ दोसं। आवस्सगं त काउं. निव्वाघाण होति गंतव्वं । वस्सिदिओ दोसविवज्जितो य, णिहा-विकारालसवज्जितप्पा॥ वाघातेण तु भयणा, देसं सव्वं वऽकाऊणं॥ तब्भावियं तं तु कुलं अदूरे, किच्चाण झायं णिसिमेव एति। आवस्सगं अकाउं निव्वाघाएण होंति आगमणं। वाघाततो वा अहवा वि दूरे, सोऊण तत्थेव उवेइ पादो॥ वाघायम्मि उ भयणा, देसं सव्वं च काऊणं॥ __ (बृभा ३२१९-३२२१) (व्यभा ६८१, ६८२,६८६) जिसने अर्थसहित कोई नया सूत्र सद्यस्क सीखा है और वृषभ मुनि अभिशय्या के शय्यातर की अनुज्ञा लेते हैं- उसका परावर्तन करना है, किन्तु उपाश्रय में स्वाध्यायभूमि नहीं है। 'हम स्वाध्याय के लिए यहां रहेंगे।' फिर सूर्यास्त से पहले ही अथवा निशीथ जैसे रहस्यमय सूत्र का परावर्तन करना है, ताकि अभिशय्या में संस्तारक, उच्चार और काल-भूमि की प्रतिलेखना उसे दूसरा सुन न सके अथवा वह अनुप्रेक्षाकुशल नहीं है-इन कर वसति में आते हैं। कारणों से मुनि रात्रि में विहारभूमि में अकेला भी जा सकता है। यदि अभिशय्या का पथ निर्व्याघात हो तो गुरु के साथ मुनि कालग्रहण कर प्रादोषिक स्वाध्याय हेतु उस निकटवर्ती आवश्यक-प्रतिक्रमण कर तथा व्याघात हो तो देश या सर्व घर में जाये, जहां उच्चारप्रस्रवणभूमि दिन में प्रतिलेखित हो। जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016049
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages732
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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